Monday, July 20, 2020

भारत दर्शन, वर्ण, विभिन्न जातिया व गोत्र


         सत्य दृष्टा, तत्वदर्शी, युग वैज्ञानिक, ऋषि- मुनियों द्वारा दिए गए ज्ञान विज्ञान के जीवनदायी रहस्य को जानने की, अनुसरण करने की जिज्ञासा आज सभी में दिखाई पड़ती है। यह न केवल किसी देश विशेष के लिए अपितु संपूर्ण विश्व वसुधा के लिए सौभाग्य और गर्व की बात है ।

आत्मीय बंधुओ,

प्रस्तुत है  "वैश्विक महामारी व भारतवर्ष 2020"  

९० दिनो के इस समय मे कौशल संवर्धन के लिए अच्छी पुस्तके,  ग्रंथ पढे, भाषा व्याकरण सुधारने, एकान्त व शांतिप्रद संगीत, गायन वादन, पुस्तक, निबंध लेखन, कला साहित्य अध्यात्म मे सदुपयोग करे। मैंने भी इस क्रम में पुनः पुस्तक लेखन का संकल्प लिया है परिणाम स्वरुप यह रचना प्रस्तुत है आशा है कि आप को पसंद आयेगी ।

*********अध्यात्म*******

अध्यात्म का अर्थ है अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना,मनना और दर्शन करना अर्थात अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना |

गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरुप अर्थात जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है |

"परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते "|

आत्मा परमात्मा का अंश है यह तो सर्विविदित है |

जब इस सम्बन्ध में शंका या संशय,अविश्वास की स्थिति अधिक क्रियमान होती है तभी हमारी दूरी बढती जाती है और हम विभिन्न रूपों से अपने को सफल बनाने का निरर्थक प्रयास करते रहते हैं जिसका परिणाम नाकारात्मक ही होता है |

ये तो असंभव सा जान पड़ता है-मिटटी के बर्तन मिटटी से अलग पहचान बनाने की कोशिश करें तो कोई क्या कहे ? यह विषय विचारणीय है |

अध्यात्म की अनुभूति सभी प्राणियों में सामान रूप से निरंतर होती रहती है | स्वयं की खोज तो सभी कर रहे हैं,परोक्ष व अपरोक्ष रूप से |

परमात्मा के असीम प्रेम की एक बूँद मानव में पायी जाती है जिसके कारण हम उनसे संयुक्त होते हैं किन्तु कुछ समय बाद इसका लोप हो जाता है और हम निराश हो जाते हैं,सांसारिक बन्धनों में आनंद ढूंढते ही रह जाते हैं परन्तु क्षणिक ही ख़ुशी पाते हैं |

जब हम क्षणिक संबंधों,क्षणिक वस्तुओं को अपना जान कर उससे आनंद मनाते हैं,जब की हर पल साथ रहने वाला शरीर भी हमें अपना ही गुलाम बना देता है | हमारी इन्द्रियां अपने आप से अलग कर देती है यह इतनी सूक्ष्मता से करती है - हमें महसूस भी नहीं होता की हमने यह काम किया है ?

जब हमें सत्य की समझ आती है तो जीवन का अंतिम पड़ाव आ जाता है व पश्चात्ताप के सिवाय कुछ हाथ नहीं लग पाता | ऐसी स्थिति का हमें पहले ही ज्ञान हो जाए तो शायद हम अपने जीवन में पूर्ण आनंद की अनुभूति के अधिकारी बन सकते हैं |हमारा इहलोक तथा परलोक भी सुधर सकता है |

अब प्रश्न उठता है की यह ज्ञान क्या हम अभी प्राप्त कर सकते हैं ? हाँ ! हम अभी जान सकते हैं की अंत समय में किसकी स्मृति होगी, हमारा भाव क्या होगा ? हम फिर अपने भाव में अपेक्षित सुधार कर सकेंगे |
गीता के आठवें अध्याय श्लोक संख्या आठ में भी बताया गया है।

यंयंवापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् |
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः ||

अर्थात-"हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है,  उस-उस को ही प्राप्त होता है ;क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है |"

एक संत ने इसे बताते हुए कहा था की सभी अपनी अपनी आखें बंद कर यह स्मरण करें की सुबह अपनी आखें खोलने से पहले हमारी जो चेतना सर्वप्रथम जगती है उस क्षण हमें किसका स्मरण होता है ? बस उसी का स्मरण अंत समय में भी होगा |
अगर किसी को भगवान् के अतिरिक्त किसी अन्य चीज़ का स्मरण होता है तो अभी से वे अपने को सुधार लें और निश्चित कर लें की हमारी आँखें खुलने से पहले हम अपने चेतन मन में भगवान् का ही स्मरण करेंगे |
बस हमारा काम बन जाएगा नहीं तो हम जीती बाज़ी भी हार जायेंगे |

वेदों का रचनाकाल (जो अनुमानित 5000 वर्ष पूर्व का है) 'वैदिककाल' कहा जाता है। तब हमारा देश कृषि और पशुपालन युग में था।
उस समय के निवासी कर्मठ, फक्कड़, प्रकृ‍तिप्रेमी, सरल और इस जीवन को भरपूर जीने की लालसा वाले थे। उन्होंने कुछ प्राकृतिक शक्तियों की पहचान की, जैसे मेघ, जल, अग्नि, वायु, सूर्य, उषा, संध्या आदि ।

अज्ञात परतत्व की खोज, परमात्मा की खोज, परमात्मा के अस्तित्व, उसके स्वरूप, गुण, स्वभाव, कार्यपद्धति, जीवात्मा की कल्पना, परमात्मा से उसका संबंध, इस भौतिक संसार की रचना में उसकी भूमिका, जन्म से पूर्व और उसके पश्चात की स्‍थिति के बारे में जिज्ञासा, जीवन-मरण चक्र और पुनर्जन्म की अवधारणा इत्यादि प्रश्नों पर चिंतन और चर्चाएं की गईं और उनके आधार पर अपनी-अपनी स्थापनाएं दी गईं।

इन्हें संचालित करने वाले आकारों (जैसे वरुण, इंद्र, रुद्र) को देवों के रूप में मान्यता दी।

कदाचित अगर किसी की बीमारी के कारण या अन्य कारण से बेहोशी की अवस्था में मृत्यु हो जाती है तो दीनबंधु भगवान् उसके नित्य प्रति किये गए इस छोटे से प्रयास को ध्यान में रखकर उन्हें स्मरण करेंगे और उनका उद्धार हो जाएगा क्योंकि परमात्मा परम दयालु हैं जो हमारे छोटे से छोटे प्रयास से द्रवीभूत हो जाते हैं |

ये विचार मानव-मात्र के कल्याण के लिए समर्पित है ।

****एक दृष्टि भारतवर्ष के दर्शन शास्त्र पर****
1.चार्वाक दर्शन के प्रणेता हैं - *बृहस्पति*
2.चार्वाक दर्शन के आचार्य हैं - *चार्वाक, जयराशि भट्ट आदि*
3.चार्वाक दर्शन कितने पदार्थ मानता है - *४, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु।*
4.चार्वाक दर्शन में कितने प्रमाण हैं, नाम बताएं- *१, प्रत्यक्षमेकमेव प्रमाणम्*
5. चार्वाक दर्शन में कितने तत्व हैं- *४, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु।*
6. चार्वाक दर्शन के अनुसार आत्मा क्या है - *चैतन्यविशिष्टः कायः पुरुषः*
7.बौद्ध धर्म में कितने पिटक हैं - *३, विनयपिटक, सुत्तपिटक, अभिधम्मपिटक*
8.बौद्ध दर्शन के प्रणेता हैं - *गौतम बुद्ध*
9.बौद्ध दर्शन का ध्येय है - *आत्यन्तिकदुःखनिवृत्तिः, निर्वाणम्*
10.प्रतीत्यसमुत्पात किस दर्शन से है- *बौद्ध दर्शन*
11.त्रिपिटक ग्रन्थों के नाम हैं - *विनयपिटक, सुत्तपिटक, अभिधम्मपिटक*
12.बौद्ध दर्शन के आर्यसत्य कितने हैं - *४, दुःख, दुःखसमुदय, दुःखनिरोध, दुःखनिरोधप्रत्यगामिनी मार्ग*
13.बौद्ध दर्शन के प्रमुख आचार्य कौन कौन से हैं - *नागार्जुन, दिंगनाग, असंग, वसुबन्धु आदि*
14.बौद्ध दर्शन के सम्प्रदाय कितने हैं - *४,सौत्रन्तिक, वैभाषिक, माध्यमिक, योगाचार*
15.बौद्धों का आत्मा विषयक सिद्धांत... कहलाता है - *अनात्मवाद*
16.बुद्ध के उपदेशों की भाषा थी- *पालि*
17. हीनयान महायान किस दर्शन से सम्बन्धित है - *बौद्ध*
18.जैन दर्शन के अन्तिम तीर्थकर थे- *महावीर*
19.जैन दर्शन में कितने प्रमाण मानता है - *2, परोक्ष अपरोक्ष*
20. जैन दर्शन के प्रणेता हैं - *ऋषभनाथ*
21.सांख्यदर्शन के प्रणेता हैं - *महर्षि कपिल*
22. सांख्य दर्शन कितने प्रकार का मोक्ष मानता है - *२, जीवनमुक्ति, विदेहमुक्ति*
23. योग दर्शन के प्रणेता हैं - *हिरण्यगर्भ*
24. वैशेषिक दर्शन के प्रणेता हैं - *कणाद*
25. मीमांसा दर्शन के प्रणेता हैं - *जैमिनि*
26. वेदान्त दर्शन के प्रणेता हैं - *बादरायण*
27. वैशेषिक दर्शन का दूसरा नाम है - *कणाद*
28. न्याय दर्शन का दूसरा नाम है - *आन्वीक्षकी*
29. न्याय दर्शन का कार्य कारण सिद्धांत कहलाता है - *असत्कार्यवाद- सतः असज्जायते*
30. न्याय दर्शन में कितने तत्व हैं - *16, प्रमाणप्रमेयादि*
31. न्याय दर्शन के प्रणेता हैं - *गौतम*
32. सप्तभंगिनयवाद किस दर्शन का है - *जैन*
33. उत्तर मीमांसा किस दर्शन को कहते हैं - *वेदान्त*
34. बृहस्पति दर्शन किसे कहते हैं - *चार्वाक दर्शन*
35. स्यादवाद किस दर्शन का सिद्धांत है - *जैन दर्शन*
36. सांख्य में प्रमाण हैं? नाम बताइये - *३, दृष्ट (प्रत्यक्ष), अनुमान, आप्तवचन (शब्द)*
37. चार्वाक दर्शन में प्रमाण हैं? *प्रत्यक्षमेकमेव प्रमाणम्*
38. वेदान्त के प्रणेता हैं - *बादरायण*
39.वेदान्त में प्रमाण हैं नाम बताइये- *६, प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि*
40. जैन दर्शन के २३वें तीर्थंकर हैं - *पार्श्वनाथ*
41. जैन और बौद्ध दर्शन में कौन सा दर्शन प्राचीन है - *जैनदर्शन*
42. जैन दर्शन में मोक्ष के कितने साधन माने गए हैं - *तीन- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः*
43. शून्य वाद किस दर्शन से है- *बौद्ध दर्शन*
44. त्रै शिक्षा सिद्धांत किस दर्शन से है- *बौद्ध दर्शन, प्रज्ञा, शील, समाधि*
45. सांख्य में कितने तत्व माने हैं - *२५*
46. सत्कार्य वाद किस दर्शन से है- *सांख्य*
47. न्याय दर्शन में कितने पदार्थ माने हैं - *१६, प्रमाणप्रमेयादि*
48. योग दर्शन के प्रणेता हैं - *महर्षि पतञ्जलि* *प्रवर्तक- हिरण्यगर्भ*
49. न्याय में प्रमाण कितने हैं - *४,प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, और शब्द*
50. सांख्य में करण कितने हैं - *१३*
51. वेदान्त में कितने प्रमाण हैं - *६,प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति, अभाव (अनुपलब्धि)*
52. पञ्चीकरणं किस दर्शन से है- *वेदान्त*
53. चार आर्य सत्य कौन से हैं - *दुःख, दुःखसमुदय, दुःखनिरोध, दुःखनिरोधप्रत्यगामिनी मार्ग*
54. भारतीय दर्शनों में सबसे प्राचीन है - *योग*
55. द्वैतवादी दर्शन कौन है - *सांख्य*
56. मृत्यु को मोक्ष कौन सा दर्शन मानता है - *चार्वाक*
57. पञ्च अणुव्रत कौन हैं - *अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्य, अस्तेय,अपरिग्रह*
58. सांख्य में करण कितने हैं- *१३*
59. न्याय में प्रमाण कितने हैं, नाम बताएं- *४, प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, और शब्द*
60. प्रस्थानत्रयी ग्रन्थों के नाम बताइये- *गीता, ब्रह्मसूत्र एवं उपनिषद्*
61. यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्, दर्शन मानता है - *चार्वाक*
62. भस्मिभूतस्य देहस्य पुनरागमनम् कुतः, किस दर्शन से है- *चार्वाक दर्शन*
63. काम एवैकः पुरुषार्थः किस दर्शन से है- *चार्वाक दर्शन*
64. लोक सिद्धो राजा परमेश्वरः किस दर्शन का है - *चार्वाक दर्शन*
65.शून्य वाद किस दर्शन से है- *बौद्ध दर्शन*
66. आत्मदीपो भव किस दर्शन से है- *बौद्ध*
67. स्कन्द कितने हैं - *५, रुप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान*
68. परतः प्रमाण्यवाद कौन सा दर्शन मानता है - *न्याय*
69. कौन सा दर्शन कर्मकाण्ड को नैतिक दृष्टि से व्यर्थ कहकर नकारता है - *चार्वाक*
70. चार महाभूतोंका वर्णन किस दर्शन में है- *चार्वाक दर्शन*
71. मोक्ष केवल ज्ञान द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, यह कथन किसका है - *शंकराचार्य*, *वस्तुतः ज्ञान ही सभी का मूल है।*
72. शंकर मोक्ष का एक मात्र साधन किसे मानते हैं - *ज्ञान*
73. तर्क भाषा में कुल कितने पदार्थ हैं - *16*
74. अलंकार शेखर किसकी रचना है - *केशव मिश्र*
75. तर्क भाषा पर उज्ज्वला टीका किसकी है - *गोपीनाथ*
76.तर्क भाषा में प्रमाण का क्या लक्षण है - *प्रमाकरणं प्रमाणम्*
77.तर्क भाषा में कारण कितने होते हैं, नाम बताएं - *3, समवायिकारण, असमवायिकारण, निमित्तकारण*
78. तर्क भाषा में प्रमेय के प्रकार बताए - *12*
79.ज्ञानेन्द्रियां कितनी होती हैं - *5*
80. तर्क भाषा में द्रव्य कितने हैं - *9*
81. तर्क भाषा में गुणों की संख्या कितनी है - *24*
82. तर्क भाषा में अभाव कितने हैं - *2*
83. तर्क भाषा में अवयव कितने हैं - *5*
84. तर्क भाषा कैसा ग्रन्थ है - *प्रकरण*
85. नव्य न्याय के प्रणेता हैं - *गङ्गेशोपाध्याय*
86. षोडशपदार्थी किसे कहा गया है - *न्याय*
87. किसने न्याय सूत्र पर भाष्य लिखा- *वात्स्यायन* अन्य बहुत से लेखक हैं।
88. विपर्यय का अर्थ है - *मिथ्याज्ञान*
89. अनुमान के कितने भेद हैं- *2* 3भेद भी स्वीकृत है।
90. हेत्वाभास के कितने प्रकार हैं - *5*
91. परार्थानुमान के भेद हैं - *5* प्रतिज्ञादि भेद नहीं, अवयव हैं।
92. असिद्धहेत्वाभास के भेद हैं - *3*
93. रस के प्रकार हैं - *6*
94. प्रमाण के कितने भेद हैं - *4*
95. कर्म के कितने भेद हैं - *5*
96. न्याय दर्शन कितने अध्यायों में विभक्त हैं - *5*
97. गंध के कितने भेद हैं - *2, सुरभिरसुरभिश्च*
98. स्पर्श के कितने हैं - *3, शीत, उष्ण, अनुष्णाशीत*
99. रुप को किस इंद्रिय के द्वारा ग्रहण करते हैं - *चक्षु*
100.शब्द को किस इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करते हैं - *श्रोत*

************रामायण काल***********

रामायण काल में जब हनुमान जी माता सीता को ढूंढ़ते हुए लंका में पहुंचे, तो उन्होंने वहां शनिदेव को उल्टा लटके देखा। कारण पूछने पर शनिदेव ने बताया कि ‘मैं शनि देव हूं और रावण ने अपने योग बल से मुझे कैद कर रखा है।’ तब हनुमान जी ने शनिदेव को रावण के कारागार से मुक्ति दिलाई। शनि देव ने हनुमान जी से वर मांगने को कहा। हनुमान जी बोले, ‘कलियुग में मेरी अराधना करने वाले को अशुभ फल नही दोगे।’ तभी से शनिवार को हनुमान जी की पूजा की जाती है।हनुमान चालीसा का पूरा पाठ करने में लगभग पाँच मिनट लगते हैं ! यह लेख थोड़ा लम्बा है, कृपया निश्चिंत हो कर ही इसे पढ़ें !
बुरी आत्‍माओं को भगाएं : - हनुमान जी अत्‍यंत बलशाली थे और वह किसी से नहीं डरते थे। हनुमान जी को भगवान माना जाता है और वे हर बुरी आत्‍माओं का नाश कर के लोगों को उससे मुक्‍ती दिलाते हैं। जिन लोगों को रात मे डर लगता है या फिर डरावने विचार मन में आते रहते हैं, उन्‍हें रोज हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहिये।
साढे़ साती का प्रभाव कम करें : - हनुमान चालीसा पढ़ कर आप शनि देव को खुश कर सकते हैं और साढे साती का प्रभाव कम करने में सफल हो सकते हैं। कहानी के मुताबिक हनुमान जी ने शनी देव की जान की रक्षा की थी, और फिर शनि देव ने खुश हो कर यह बोला था कि वह आज के बाद से किसी भी हनुमान भक्‍त का कोई नुकसान नहीं करेगें।
पाप से मुक्‍ती दिलाए : - हम कभी ना कभी जान बूझ कर या फिर अनजाने में ही गल्‍तियां कर बैठते हैं। लेकिन आप उसकी माफी हनुमान चालीसा पढ़ कर मांग सकते हैं। रात के समय हनुमान चालीसा को 8 बार पढ़ने से आप सभी प्रकार के पाप से मुक्‍त हो सकते हैं।
बाधा हटाए: - जो भी इंसान हनुमान चालीसा को रात में पढे़गा उसे हनुमान जी स्‍वंय आ कर सुरक्षा प्रदान करेगें।बचपन से ही हमें सिखाया गया है कि अगर कभी भी मन अशांत लगें या फिर किसी चीज से डर लगे तो, हनुमान चालीसा पढ़ो। ऐसा करने से मन शांत होता है और डर भी नहीं लगता। सनातन हिंदू धर्म में हनुमान चालीसा का बड़ा ही महत्‍व है। हनुमान चालीसा पढ़ने से शनि ग्रह और साढे़ साती का प्रभाव कम होता है। हनुमान जी राम जी के परम भक्त हुए हैं। प्रत्येक व्यक्ति के अंदर हनुमान जी जैसी सेवा-भक्ति विद्यमान है। हनुमान-चालीसा एक ऐसी कृति है, जो हनुमान जी के माध्यम से व्यक्ति को उसके अंदर विद्यमान गुणों का बोध कराती है। इसके पाठ और मनन करने से बल बुद्धि जागृत होती है। हनुमान-चालीसा का पाठ करने से व्यक्ति खुद अपनी शक्ति, भक्ति और कर्तव्यों का आंकलन कर सकता है।

***जानिए हनुमान चालीसा की किस चौपाई से क्या चमत्कार होते हैं !

वैसे तो हनुमान चालीसा की हर चौपाई और दोहे चमत्कारी हैं लेकिन कुछ ऐसी चौपाइयां हैं जो बहुत जल्द असर दिखाती हैं। ये चौपाइयां सर्वाधिक प्रचलित भी हैं समय-समय में काफी लोग इनका जप करते हैं। यहां जानिए कुछ खास चौपाइयां और उनके अर्थ। साथ ही जानिए हनुमान चालीसा की किस चौपाई से क्या चमत्कार होते हैं…

रामदूत अतुलित बलधामा। अंजनिपुत्र पवनसुत नामा।।

यदि कोई व्यक्ति इस चौपाई का जप करता है तो उसे शारीरिक कमजोरियों से मुक्ति मिलती है। इस पंक्ति का अर्थ यह है कि हनुमानजी श्रीराम के दूत हैं और अतुलित बल के धाम हैं। यानि हनुमानजी परम शक्तिशाली हैं। इनकी माता का नाम अंजनी है इसी वजह से इन्हें अंजनी पुत्र कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार हनुमानजी को पवन देव का पुत्र माना जाता है इसी वजह से इन्हें पवनसुत भी कहते हैं।

महाबीर बिक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी।।

यदि कोई व्यक्ति हनुमान चालीसा की केवल इस पंक्ति का जप करता है तो उसे सुबुद्धि की प्राप्ति होती है। इस पंक्ति का जप करने वाले लोगों के कुविचार नष्ट होते हैं और सुविचार बनने लगते हैं। बुराई से ध्यान हटता है और अच्छाई की ओर मन लगता है। इस पंक्ति का अर्थ यही है कि बजरंगबली महावीर हैं और हनुमानजी कुमति को निवारते हैं यानि कुमति को दूर करते हैं और सुमति यानि अच्छे विचारों को बढ़ाते हैं।

बिद्यबान गुनी अति चातुर। रामकाज करीबे को आतुर।।

यदि किसी व्यक्ति को विद्या धन चाहिए तो उसे इस पंक्ति का जप करना चाहिए। इस पंक्ति के जप से हमें विद्या और चतुराई प्राप्त होती है। इसके साथ ही हमारे हृदय में श्रीराम की भक्ति भी बढ़ती है। इस चौपाई का अर्थ है कि हनुमानजी विद्यावान हैं और गुणवान हैं। हनुमानजी चतुर भी हैं। वे सदैव ही श्रीराम के काम को करने के लिए तत्पर रहते हैं। जो भी व्यक्ति इस चौपाई का जप करता है उसे हनुमानजी की ही तरह विद्या, गुण, चतुराई के साथ ही श्रीराम की भक्ति प्राप्त होती है।

भीम रूप धरि असुर संहारे। रामचंद्रजी के काज संवारे।।

जब आप शत्रुओं से परेशान हो जाएं और कोई रास्ता दिखाई न दे तो हनुमान चालीसा का जप करें। यदि एकाग्रता और भक्ति के साथ हनुमान चालीसा की सिर्फ इस पंक्ति का भी जप किया जाए तो शत्रुओं पर विजय प्राप्ति होती है। श्रीराम की कृपा प्राप्त होती है। इस पंक्ति का अर्थ यह है कि श्रीराम और रावण के बीच हुए युद्ध में हनुमानजी ने भीम रूप यानि विशाल रूप धारण करके असुरों-राक्षसों का संहार किया। श्रीराम के काम पूर्ण करने में हनुमानजी ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। जिससे श्रीराम के सभी काम संवर गए।

लाय संजीवन लखन जियाये। श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।।

इस पंक्ति का जप करने से भयंकर बीमारियों से भी मुक्ति मिल सकती है। यदि कोई व्यक्ति किसी गंभीर बीमारी से पीडि़त है और दवाओं का भी असर नहीं हो रहा है तो उसे भक्ति के साथ हनुमान चालीसा या इस पंक्ति का जप करना चाहिए। दवाओं का असर होना शुरू हो जाएगा, बीमारी धीरे-धीरे ठीक होने लगेगी। इस चौपाई का अर्थ यह है कि रावण के पुत्र मेघनाद ने लक्ष्मण को मुर्छित कर दिया था। तब सभी औषधियों के प्रभाव से भी लक्ष्मण की चेतना लौट नहीं रही थी। तब हनुमानजी संजीवनी औषधि लेकर आए और लक्ष्मण के प्राण बचाए। हनुमानजी के इस चमत्कार से श्रीराम अतिप्रसन्न हुए।श्रीराम के परम भक्त हनुमानजी सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाले देवताओं में से एक हैं। शास्त्रों के अनुसार माता सीता के वरदान के प्रभाव से बजरंग बली को अमर बताया गया है। ऐसा माना जाता है आज भी जहां रामचरित मानस या रामायण या सुंदरकांड का पाठ पूरी श्रद्धा एवं भक्ति से किया जाता है वहां हनुमानजी अवश्य प्रकट होते हैं। इन्हें प्रसन्न करने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु हनुमान चालीसा का पाठ भी करते हैं। यदि कोई व्यक्ति पूरी हनुमान चालीसा का पाठ करने में असमर्थ रहता है तो वह अपनी मनोकामना के अनुसार केवल कुछ पंक्तियों का भी जप कर सकता है।केवल हनुमान चालीसा ही नहीं सभी देवी-देवताओं की प्रमुख स्तुतियों में चालिस ही दोहे होते हैं? विद्वानों के अनुसार चालीसा यानि चालीस, संख्या चालीस, हमारे देवी-देवीताओं की स्तुतियों में चालीस स्तुतियां ही सम्मिलित की जाती हैं। जैसे श्री हनुमान चालीसा, दुर्गा चालीसा, शिव चालीसा आदि।

इन स्तुतियों में चालीस दोहे ही क्यों होते हैं ? इसका धार्मिक दृष्टिकोण है। इन चालीस स्तुतियों में संबंधित देवता के चरित्र, शक्ति, कार्य एवं महिमा का वर्णन होता है।चालीस चौपाइयां हमारे जीवन की संपूर्णता का प्रतीक हैं, इनकी संख्या चालीस इसलिए निर्धारित की गई है क्योंकि मनुष्य जीवन 24 तत्वों से निर्मित है और संपूर्ण जीवनकाल में इसके लिए कुल 16 संस्कार निर्धारित किए गए हैं। इन दोनों का योग 40 होता है।
इन 24 तत्वों में 5 ज्ञानेंद्रिय, 5 कर्मेंद्रिय, 5 महाभूत, 5 तन्मात्रा, 4 अन्त:करण शामिल हैं।
सोलह संस्कार इस प्रकार हैं :-
1. गर्भाधान संस्कार
2. पुंसवन संस्कार
3. सीमन्तोन्नयन संस्कार
4. जातकर्म संस्कार
5. नामकरण संस्कार
6. निष्क्रमण संस्कार
7. अन्नप्राशन संस्कार
8. चूड़ाकर्म संस्कार
9. विद्यारम्भ संस्कार
10. कर्णवेध संस्कार
11. यज्ञोपवीत संस्कार
12. वेदारम्भ संस्कार
13. केशान्त संस्कार
14. समावर्तन संस्कार
15. पाणिग्रहण संस्कार
16. अन्त्येष्टि संस्कार
साभार संकलित
भगवान की इन स्तुतियों में हम उनसे इन तत्वों और संस्कारों का बखान तो करते ही हैं, साथ ही चालीसा स्तुति से जीवन में हुए दोषों की क्षमायाचना भी करते हैं।
इन चालीस चौपाइयों में सोलह संस्कार एवं 24 तत्वों का भी समावेश होता है। जिसकी वजह से जीवन की उत्पत्ति है।

******ब्राम्हण का एकादश परिचय .*****

1- गोत्र ....


.गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है । किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया ।

विश्‍वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतम:।अत्रिवर्सष्ठि: कश्यपइत्येतेसप्तर्षय:॥

सप्तानामृषी-णामगस्त्याष्टमानां यदपत्यं तदोत्रामित्युच्यते॥

विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है। इस तरह आठ ऋषियों की वंश-परम्परा में जितने ऋषि (वेदमन्त्र द्रष्टा) आ गए वे सभी गोत्र कहलाते हैं। और आजकल ब्राह्मणों में जितने गोत्र मिलते हैं वह उन्हीं के अन्तर्गत है।सिर्फ भृगु, अंगिरा के वंशवाले ही उनके सिवाय और हैं जिन ऋषियों के नाम से भी गोत्र व्यवहार होता है। इस प्रकार कुल दस ऋषि मूल में है। इस प्रकार देखा जाता है कि इन दसों के वंशज ऋषि लाखों हो गए होंगे और उतने ही गोत्र भी होने चाहिए।

गोत्र शब्द  एक अर्थ  में  गो अर्थात्  पृथ्वी का पर्याय भी है ओर 'त्र' का अर्थ रक्षा करने वाला भी हे। यहाँ गोत्र का अर्थ पृथ्वी की रक्षा करें वाले ऋषि से ही है। गो शब्द इन्द्रियों का वाचक भी है, ऋषि- मुनि अपनी इन्द्रियों को वश में कर अन्य प्रजाजनों का मार्ग दर्शन करते थे, इसलिए वे गोत्रकारक कहलाए। ऋषियों के गुरुकुल में जो शिष्य शिक्षा प्राप्त कर जहा कहीं भी जाते थे , वे अपने गुरु या आश्रम प्रमुख ऋषि का नाम बतलाते थे, जो बाद में उनके वंशधरो में स्वयं को उनके वही गोत्र कहने की परम्परा आविर्भूत हुई । जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्‍व है ।।

2 -प्रवर .....

प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ" । अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें ।अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच आदि अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे lप्रवर का अर्थ हुआ कि उन मन्त्रद्रष्टा ऋषियों में जो श्रेष्ठ हो।प्रवर का एक और भी अर्थ है। ..यज्ञ के समय अधवर्यु या होता के द्वारा ऋषियों का नाम ले कर अग्नि की प्रार्थना की जाती है। उस प्रार्थना का अभिप्राय यह है कि जैसे अमुक-अमुक ऋषि लोग बड़े ही प्रतापी और योग्य थे। अतएव उनके हवन को देवताओं ने स्वीकार किया। उसी प्रकार, हे अग्निदेव, यह यजमान भी उन्हीं का वंशज होने के नाते हवन करने योग्य है।इस प्रकार जिन ऋषियों का नाम लिया जाता है वही प्रवर कहलाते हैं। यह प्रवर किसी गोत्र के एक, किसी के दो, किसी के तीन और किसी के पाँच तक होते हैं न तो चार प्रवर किसी गोत्र के होते हैं और न पाँच से अधिक।यही परम्परा चली आती हैं। ऐसा ही आपस्तंब आदि का वचन लिखा है। हाँ, यह अवश्य है कि किसी ऋषि के मत से सभी गोत्रों के तीन प्रवर होते हैं।

जैसा कि :त्रीन्वृणीते मंत्राकृतोवृणीते॥ 7॥

अथैकेषामेकं वृणीते द्वौवृणीते त्रीन्वृणीते न चतुरोवृणीते नपंचातिवृणीते॥ 8॥

3 -वेद .....

वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने सभी के लाभ के लिए किया है , इनको सुनकर याद किया जाता है , इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं। प्रत्येक ब्राह्मण का अपना एक विशिष्ट वेद होता है , जिसे वह अध्ययन -अध्यापन करता है ।

आसान शब्दो मे गौत्र प्रवर्तक ऋषि जिस वेद को चिन्‍तन, व्‍याख्‍यादि के अध्‍ययन एवं वंशानुगत निरन्‍तरता पढ़ने की आज्ञा अपने वंशजों को देता है, उस ब्राम्हण वंश (गोत्र) का वही वेद माना जाता है।वेद का अभिप्राय यह है कि उस गोत्र का ऋषि ने उसी वेद के पठन-पाठन या प्रचार में विशेष ध्यान दिया और उस गोत्रवाले प्रधानतया उसी वेद का अध्ययन और उसमें कहे गए कर्मों का अनुष्ठान करते आए। इसीलिए किसी का गोत्र यजुर्वेद है तो किसी का सामवेद और किसी का ऋग्वेद है, तो किसी का अथर्ववेद। उत्तर के देशों में प्राय: साम और यजुर्वेद का ही प्रचार था। किसी-किसी का ही अथर्ववेद मिलता है।4..उपवेद ....प्रत्येक वेद  से  सम्बद्ध ब्राम्हण को  विशिष्ट  उपवेद  का  भी  ज्ञान  होना  चाहिये  ।

वेदों की सहायता के लिए कलाकौशल का प्रचार कर संसार की सामाजिक उन्‍नति का मार्ग बतलाने वाले शास्‍त्र का नाम उपवेद है।उपवेद उन सब विद्याओं को कहा जाता है, जो वेद के ही अन्तर्गत हों। यह वेद के ही आश्रित तथा वेदों से ही निकले होते हैं। जैसे-

धनुर्वेद ... विश्वामित्र ने इसे यजुर्वेद से निकला था।

गन्धर्ववेद ... भरतमुनि ने इसे सामवेद से निकाला था।

आयुर्वेद .... धन्वंतरि ने इसे ऋग्वेद से इसे निकाला था।

स्थापत्य ....विश्वकर्मा ने अथर्ववेद से इसे निकला था।

हर गोत्र का अलग अलग उपवेद होता है

5-शाखा .....

वेदो के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है , कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।प्रत्‍येक वेद में कई शाखायें होती हैं।

जैसे --ऋग्‍वेद की 21 शाखा...प्रयोग में 5 शाकल, वाष्कल,आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकायन...यजुर्वेद की 101 शाखा....प्रयोग में 5काठक,कपिष्ठल,मैत्रियाणी,तैतीरीय,वाजसनेय...सामवेद की 1000 शाखा...सभी गायन , मन्त्र यांत्रिक प्रचलित विधान...अथर्ववेद की 9 शाखा ....पैपल, दान्त, प्रदान्त,  स्नात, सौल, ब्रह्मदाबल, शौनक, देवदर्शत और चरणविद्या...है।इस प्रकार चारों वेदों की 1131 शाखा होती है।प्रत्‍येक वेद की अथवा अपने ही वेद की समस्‍त शाखाओं को अल्‍पायु मानव नहीं पढ़ सकता, इसलिए महर्षियों ने 1 शाखा अवश्‍य पढ़ने का पूर्व में नियम बनाया था और अपने गौत्र में उत्‍पन्‍न होने वालों को आज्ञा दी कि वे अपने वेद की अमूक शाखा को अवश्‍य पढ़ा करें, इसलिए जिस गौत्र वालों को जिस शाखा के पढ़ने का आदेश दिया, उस गौत्र की वही शाखा हो गई। जैसे पराशर गौत्र का शुक्‍ल यजुर्वेद है और यजुर्वेद की 101 शाखा है। वेद की इन सब शाखाओं को कोई भी व्‍यक्ति नहीं पढ़ सकता, इसलिए उसकी एक शाखा (माध्‍यन्दिनी) को प्रत्‍येक व्‍यक्ति 1-2 साल में पढ़ कर अपने ब्राम्हण होने का कर्तव्य पूर्ण कर सकता है ।।

6-सूत्र ....

व्यक्ति शाखा के अध्ययन में असमर्थ न हो , अतः उस गोत्र के परवर्ती ऋषियों ने उन शाखाओं को सूत्र रूप में विभाजित किया है, जिसके माध्यम से उस शाखा में प्रवाहमान ज्ञान व संस्कृति को कोई क्षति न हो और कुल के लोग संस्कारी हों !वेदानुकूल स्‍मृतियों में ब्राह्मणों के कर्मो का वर्णन किया है, उन कर्मो की विधि बतलाने वाले ग्रन्‍थ ऋषियों ने सूत्र रूप में लिखे हैं और वे ग्रन्‍थ भिन्‍न-भिन्‍न गौत्रों के लिए निर्धारित वेदों के भिन्‍न-भिन्‍न सूत्र ग्रन्‍थ हैं।

  ऋषियों की शिक्षाओं को सूत्र कहा जाता है। प्रत्येक वेद का अपना सूत्र है। सामाजिक, नैतिक तथा शास्त्रानुकूल नियमों वाले सूत्रों को धर्म सूत्र कहते हैं,.llआनुष्ठानिक वालों को श्रौत सूत्र तथा घरेलू विधिशास्त्रों की व्याख्या करने वालों को गॄह् सूत्र कहा जाता है। सूत्र सामान्यतः पद्य या मिश्रित गद्य-पद्य में लिखे हुए हैं।

7-छन्द ....

प्रत्येक ब्राह्मण का अपना परम्परासम्मत छन्द होता है जिसका ज्ञान हर ब्राम्हण को होना चाहिए   ।छंद वेदों के मंत्रों में प्रयुक्त कवित्त मापों को कहा जाता है। श्लोकों में मात्राओं की संख्या और उनके लघु-गुरु उच्चारणों के क्रमों के समूहों को छंद कहते हैं - वेदों में कम से कम 15 प्रकार के छंद प्रयुक्त हुए हैं, और हर गोत्र का एक परम्परागत छंद है ।

अत्यष्टि (ऋग्वेद 9.111.9)अतिजगती(ऋग्वेद 5.87.1)अतिशक्वरीअनुष्टुपअष्टिउष्णिक्एकपदा विराट (दशाक्षरा भी कहते हैं) गायत्री(प्रसिद्ध गायत्री मंत्र)जगतीत्रिषटुपद्विपदा विराटधृतिपंक्तिप्रगाथप्रस्तार पंक्तिबृहतीमहाबृहतीविराटशक्वरीविशेष -- ...

वेद प्राचीन ज्ञान विज्ञान से युक्त ग्रन्थ है जिन्हें अपौरुषेय (किसी मानव/देवता ने नहीं लिखे) तथा अनादि माना जाता हैं, बल्कि अनादि सत्य का प्राकट्य है जिनकी वैधता शाश्वत है। वेदों को श्रुति माना जाता है (श्रवण हेतु, जो मौखिक परंपरा का द्योतक है) लिखे हुए में मिलावट की जा सकती है लेकिन जो कंठस्थ है उसमें कोई कैसे मिलावट कर सकता है इसलिए ब्राम्हणो ने वेदों को श्रुति के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया.llजो ज्ञान शदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होता रहा , हर ब्राम्हण अपने बच्चों को ये जिम्मेदारी देता था कि वो अपने पूर्वजों की इस धरोहर का इस ज्ञान का वाहक बने और समाज और आने वाली पीढ़ी को ये ज्ञान दे ....लेकिन हम इस पश्चिमीकरण के दौड़ में इस कदर अंधे हुए की हम अपनी जिम्मेदारियों को विस्मृत कर बैठे.llवेदों में वो सब कुछ है जो आज भी विज्ञान के लिए आश्चर्य का विषय है जरूरत है तो बस उन कंधों की जो इस जिम्मेदारी का भार उठा सके ।।

8-शिखा ....

अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने  की परम्परा शिखा कहलाती है ।शिखा में जो ग्रंथि देता वह बाईं तरफ घुमा कर और कोई दाहिनी तरफ। प्राय: यही नियम था कि सामवेदियों की बाईं शिखा और यजुर्वेदियों की दाहिनी शिखा कही कही इसमे भी भेद मिलता है ।।परम्परागत रूप से हर ब्राम्हण को शिखा धारण करनी चाहिए ( इसका अपना वैज्ञानिक लाभ है) लेकिन आज कल इसे धारण करने वाले को सिर्फ कर्मकांडी ही माना जाता है ना तो किसी को इसका लाभ पता है ना कोई रखना चाहता है ।।

9-पाद ..

अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं । ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है । अपने -अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं ।सामवेदियों का बायाँ पाद और  इसी प्रकार यजुर्वेदियों की दाहिना पाद माना जाता है ।।

10-देवता ....

प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते है वही उनका कुल देवता (गणेश , विष्णु, शिव , दुर्गा ,सूर्य इत्यादि पञ्च देवों में से कोई एक) उनके आराध्‍य देव है । इसी प्रकार कुल के भी  संरक्षक  देवता या कुलदेवी होती हें । इनका ज्ञान कुल के वयोवृद्ध  अग्रजों (माता-पिता आदि ) के द्वारा अगली पीड़ी को दिया जाता  है । एक कुलीन ब्राह्मण को अपने तीनों प्रकार के देवताओं का बोध  तो अवश्य ही  होना चाहिए -
(1) इष्ट देवता अथवा इष्ट देवी ।(2) कुल देवता अथवा कुल देवी ।(2) ग्राम देवता अथवा ग्राम देवी ।

11-द्वार ....

यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता )  जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार होता है।यज्ञ मंडप तैयार करने की कुल 39 विधाएं है और हर गोत्र के ब्राम्हण के प्रवेश के लिए अलग द्वार होता है।

**********हिन्दुओं के प्रमुख वंश,************

#Indus Vally Civilization 0302 साभार: अनिरुद्ध जोशी

            भारतीय लोग ब्रह्मा, विष्णु, महेश और ऋषि मुनियोंकी संतानें हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश के कई पुत्र और पुत्रियां थी। इन सभी के पुत्रों और पुत्रियों से ही देव (सुर), दैत्य (असुर), दानव, राक्षस, गंधर्व, यक्ष, किन्नर, वानर, नाग, चारण, निषाद, मातंग, रीछ, भल्ल, किरात, अप्सरा, विद्याधर, सिद्ध, निशाचर, वीर, गुह्यक, कुलदेव, स्थानदेव, ग्राम देवता, पितर, भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्मांडा, ब्रह्मराक्षस, वैताल, क्षेत्रपाल, मानव आदि की उत्पत्ति हुई। वंश लेखकों, तीर्थ पुरोहितों, पण्डों व वंश परंपरा के वाचक संवाहकों द्वारा समस्त आर्यावर्त के निवासियों को एकजुट रखने का जो आत्मीय प्रयास किया गया है, वह निश्चित रूप से वैदिक ऋषि परंपरा का ही अद्यतन आदर्श उदाहरण माना जा सकता है। पुराण अनुसार द्रविड़, चोल एवं पांड्य जातियों की उत्पत्ति में राजा नहुष के योगदान को मानते हैं, जो इलावर्त का चंद्रवंशी राजा था।

पुराण भारतीय इतिहास को जलप्रलय तक ले जाते हैं। यहीं से वैवस्वत मन्वंतर प्रारंभ होता है। वेदों में पंचनद का उल्लेख है। अर्थात पांच प्रमुख कुल से ही भारतीयों के कुलों का विस्तार हुआ।

विभाजित वंश : संपूर्ण हिन्दू वंश वर्तमान में गोत्र, प्रवर, शाखा, वेद, शर्म, गण, शिखा, पाद, तिलक, छत्र, माला, देवता (शिव, विनायक, कुलदेवी, कुलदेवता, इष्टदेवता, राष्ट्रदेवता, गोष्ठ देवता, भूमि देवता, ग्राम देवता, भैरव और यक्ष) आदि में वि‍भक्त हो गया है। जैसे-जैसे समाज बढ़ा, गण और गोत्र में भी कई भेद होते गए। बहुत से समाज या लोगों ने गुलामी के काल में कालांतर में यह सब छोड़ दिया है तो उनकी पहचान कश्यप गोत्र मान ली जाती है।

कुलहंता : आज संपूर्ण अखंड भारत अर्थात अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और बर्मा आदि में जो-जो भी मनुष्य निवास कर रहे हैं, वे सभी निम्नलिखित प्रमुख हिन्दू वंशों से ही संबंध रखते हैं। कालांतर में उनकी जाति, धर्म और प्रांत बदलते रहे लेकिन वे सभी एक ही कुल और वंश से हैं।

गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि कुल का नाश तब होता है जबकि कोई व्यक्ति अपने कुलधर्म को छोड़ देता है। इस तरह वे अपने मूल एवं पूर्वजों को हमेशा के लिए भूल जाते हैं।

कुलहंता वह होता है, जो अपने कुलधर्म और परंपरा को छोड़कर अन्य के कुलधर्म और परंपरा को अपना लेता है।

जो वृक्ष अपनी जड़ों से नफरत करता है उसके पनपने की संभावना न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाती है ।

प्राचीन काल में हर जाति, समाज आदि का व्यक्ति ब्राह्मण बनने के लिए उत्सुक रहता था। ब्राह्मण होने का अधिकार सभी को आज भी है। चाहे वह किसी भी जाति, प्रांत या संप्रदाय से हो वह गायत्री दीक्षा लेकर ब्रह्माण बन सकता है, लेकिन ब्राह्मण होने के लिए कुछ नियमों का पालन करना होता है।

हम उस ब्राह्मण समाज की बात नहीं कर रहे हैं जिनमें से अधिकतर ने अपने ब्राह्मण कर्म छोड़कर अन्य कर्मों को अपना लिया है। हालांकि अब वे ब्राह्मण नहीं रहे लेकिन कहलाते अभी भी ब्राह्मण ही है।

स्मृति-पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है:- मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि।

8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं। इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है।

उपनाम में छुपा है पूरा इतिहास 

1. मात्र : ऐसे ब्राह्मण जो जाति से ब्राह्मण हैं लेकिन वे कर्म से ब्राह्मण नहीं हैं उन्हें मात्र कहा गया है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता। बहुत से ब्राह्मण ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार और वैदिक कर्मों से दूर हैं, तो वैसे मात्र हैं। उनमें से कुछ तो यह भी नहीं हैं। वे बस शूद्र हैं। वे तरह तरह के देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और रा‍त्रि के क्रियाकांड में लिप्त रहते हैं। वे सभी राक्षस धर्मी भी हो सकते हैं।

2. ब्राह्मण : ईश्वरवादी, वेदपाठी, ब्रह्मगामी, सरल, एकांतप्रिय, सत्यवादी और बुद्धि से जो दृढ़ हैं, वे ब्राह्मण कहे गए हैं। तरह-तरह की पूजा-पाठ आदि पुराणिकों के कर्म को छोड़कर जो वेदसम्मत आचरण करता है वह ब्राह्मण कहा गया है।

3. श्रोत्रिय : स्मृति अनुसार जो कोई भी मनुष्य वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छहों अंगों सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित 6 कर्मों में सलंग्न रहता है, वह ‘श्रोत्रिय’ कहलाता है।

4. अनुचान : कोई भी व्यक्ति वेदों और वेदांगों का तत्वज्ञ, पापरहित, शुद्ध चित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान है, वह ‘अनुचान’ माना गया है।

5. भ्रूण : अनुचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, ऐसे इंद्रिय संयम व्यक्ति को भ्रूण कहा गया है।6. ऋषिकल्प : जो कोई भी व्यक्ति सभी वेदों, स्मृतियों और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मन और इंद्रियों को वश में करके आश्रम में सदा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए निवास करता है उसे ऋषिकल्प कहा जाता है।

7. ऋषि : ऐसे व्यक्ति तो सम्यक आहार, विहार आदि करते हुए ब्रह्मचारी रहकर संशय और संदेह से परे हैं और जिसके श्राप और अनुग्रह फलित होने लगे हैं उस सत्यप्रतिज्ञ और समर्थ व्यक्ति को ऋषि कहा गया है।

8. मुनि : जो व्यक्ति निवृत्ति मार्ग में स्थित, संपूर्ण तत्वों का ज्ञाता, ध्याननिष्ठ, जितेन्द्रिय तथा सिद्ध है ऐसे ब्राह्मण को ‘मुनि’ कहते हैं। उपरोक्त में से अधिकतर 'मात्र' नामक ब्राह्मणों की संख्‍या ही अधिक है।

**********🌇ब्राह्मणों की वंशावली🌇*********** 

         भविष्य पुराण के अनुसार ब्राह्मणों का इतिहास है की प्राचीन काल में महर्षि कश्यप के पुत्र कण्वय की आर्यावनी नाम की देव कन्या पत्नी हुई। ब्रम्हा की आज्ञा से दोनों कुरुक्षेत्र वासनीसरस्वती नदी के तट पर गये और कण् व चतुर्वेदमय सूक्तों में सरस्वती देवी की स्तुति करने लगेएक वर्ष बीत जाने पर वह देवी प्रसन्न हो वहां आयीं और ब्राम्हणो की समृद्धि के लिये उन्हें वरदान दिया ।

वर के प्रभाव कण्वय के आर्य बुद्धिवाले दस पुत्र हुए जिनका क्रमानुसार नाम था -

उपाध्याय, दीक्षित, पाठक, शुक्ला, मिश्रा, अग्निहोत्री, दुबे, तिवारी,पाण्डेय, और चतुर्वेदी । 

इन लोगो का जैसा नाम था वैसा ही गुण। इन लोगो ने नत मस्तक हो सरस्वती देवी को प्रसन्न किया। बारह वर्ष की अवस्था वाले उन लोगो को भक्तवत्सला शारदा देवी ने अपनी कन्याए प्रदान की।

वे क्रमशः उपाध्यायी, दीक्षिता, पाठकी, शुक्लिका, मिश्राणी, अग्निहोत्रिधी, द्विवेदिनी, तिवेदिनी, पाण्ड्यायनी,और चतुर्वेदिनी कहलायीं।

फिर उन कन्याआं के भी अपने-अपने पति से सोलह-सोलह पुत्र हुए हैं वे सब गोत्रकार हुए जिनका नाम -

कष्यप, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्रि, वसिष्ठ, "वत्स", गौतम, पराशर, गर्ग,अ त्रि,भृगडत्र,अंगिरा, श्रंगी, कात्याय,और याज्ञवल्क्य।

इन नामो से सोलह-सोलह पुत्र जाने जाते हैं। मुख्य 10 प्रकार ब्राम्हणों ये हैं-

(1) तैलंगा, (2) महार्राष्ट्रा, (3) गुर्जर, (4) द्रविड, (5) कर्णटिका, यह पांच "द्रविण" कहे जाते हैं,

ये विन्ध्यांचल के दक्षिण में पाये जाते हैं| तथा विंध्यांचल के उत्तर में पाये जाने वाले या वास करने वाले ब्राम्हण

(1) सारस्वत, (2) कान्यकुब्ज, (3) गौड़,(4) मैथिल,(5) उत्कलये, उत्तर के पंच गौड़ कहे जाते हैं।

वैसे ब्राम्हण अनेक हैं जिनका वर्णन आगे लिखा है। ऐसी संख्या मुख्य 115 की है। शाखा भेद अनेक हैं ।

इनके अलावा संकर जाति ब्राम्हण अनेक है । यहां मिली जुली उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हणों की नामावली 115 की दे रहा हूं। जो एक से दो और 2 से 5 और 5 से 10 और 10 से 84 भेद हुए हैं, फिर उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हण की संख्या शाखा भेद से 230 के लगभग है | तथा और भी शाखा भेद हुए हैं, जो लगभग 300 के करीब ब्राम्हण भेदों की संख्या का लेखा पाया गया है। उत्तर व दक्षिणी ब्राम्हणां के भेद इस प्रकार है

81 ब्राम्हाणां की 31 शाखा कुल 115 ब्राम्हण संख्या, मुख्य है

-(1) गौड़ ब्राम्हण, (2) गुजरगौड़ ब्राम्हण (मारवाड,मालवा) (3) श्री गौड़ ब्राम्हण, (4) गंगापुत्र गौडत्र ब्राम्हण, (5) हरियाणा गौड़ ब्राम्हण, (6) वशिष्ठ गौड़ ब्राम्हण, (7) शोरथ गौड ब्राम्हण, (8) दालभ्य गौड़ ब्राम्हण, (9) सुखसेन गौड़ ब्राम्हण, (10) भटनागर गौड़ ब्राम्हण,(11) सूरजध्वज गौड ब्राम्हण (षोभर), (12) मथुरा के चौबे ब्राम्हण, (13) वाल्मीकि ब्राम्हण, (14) रायकवाल ब्राम्हण,(15) गोमित्र ब्राम्हण,(16) दायमा ब्राम्हण, (17) सारस्वत ब्राम्हण,(18) मैथल ब्राम्हण,(19) कान्यकुब्ज ब्राम्हण, (20) उत्कल ब्राम्हण,(21) सरयुपारी ब्राम्हण, (22) पराशर ब्राम्हण,(23) सनोडिया या सनाड्य,(24)मित्र गौड़ ब्राम्हण,(25) कपिल ब्राम्हण,(26) तलाजिये ब्राम्हण,(27) खेटुवे ब्राम्हण,(28) नारदी ब्राम्हण,(29) चन्द्रसर ब्राम्हण,(30)वलादरे ब्राम्हण,(31) गयावाल ब्राम्हण,(32) ओडये ब्राम्हण,(33) आभीर ब्राम्हण,( 34) पल्लीवास ब्राम्हण,(35) लेटवास ब्राम्हण,(36) सोमपुरा ब्राम्हण,(37) काबोद सिद्धि ब्राम्हण, (38) नदोर्या ब्राम्हण,(39) भारती ब्राम्हण,(40) पुश्करर्णी ब्राम्हण,(41) गरुड़ गलिया ब्राम्हण, (42) भार्गव ब्राम्हण, (43) नार्मदीय ब्राम्हण,(44) नन्दवाण ब्राम्हण,(45) मैत्रयणी ब्राम्हण, (46) अभिल्ल ब्राम्हण,(47) मध्यान्दिनीय ब्राम्हण,(48) टोलक ब्राम्हण,(49) श्रीमाली ब्राम्हण, (50) पोरवाल बनिये ब्राम्हण,(51) श्रीमाली वैष्य ब्राम्हण (52) तांगड़ ब्राम्हण, (53) सिंध ब्राम्हण, (५४) त्रिवेदी म्होड ब्राम्हण,(55) इग्यर्शण ब्राम्हण,( 56) धनोजा म्होड ब्राम्हण,(57) गौभुज ब्राम्हण,(58) अट्टालजर ब्राम्हण,(59) मधुकर ब्राम्हण,(60) मंडलपुरवासी ब्राम्हण, (61) खड़ायते ब्राम्हण,(62) बाजरखेड़ा वाल ब्राम्हण,(63) भीतरखेड़ा वाल ब्राम्हण, (64) लाढवनिये ब्राम्हण, (65) झारोला ब्राम्हण, (66) अंतरदेवी ब्राम्हण ,(67) गालव ब्राम्हण,(68) गिरनारे ब्राम्हण

*****संकलनः शिवा कान्त वत्स **** 

आत्मीय बंधुओ,

      सभी ब्राह्मण बंधुओ को मेरा नमस्कार बहुत दुर्लभ जानकारी है जरूर पढ़े, और समाज में शेयर करे हम क्या है !इस तरह ब्राह्मणों की उत्पत्ति और इतिहास के साथ इनका विस्तार अलग अलग राज्यो में हुआ और ये उस राज्य के ब्राह्मण कहलाये। ब्राह्मण बिना धरती की कल्पना ही नहीं की जा सकती इसलिए ब्राह्मण होने पर गर्व करो और अपने कर्म और धर्म का पालन कर सनातन संस्कृति की रक्षा करें। सबसे पहले ब्राह्मण शब्द का प्रयोग अथर्वेद के उच्चारण कर्ता ऋषियों के लिए किया गया था। फिर प्रत्येक वेद को समझने के लिए ग्रन्थ लिखे गए उन्हें भी ब्रह्मण साहित्य कहा गया। ब्राह्मण का तब किसी जाति या समाज से नहीं था। समाज बनने के बाद अब देखा जाए तो भारत में सबसे ज्यादा विभाजन या वर्गीकरण ब्राह्मणों में ही है जैसे:- सरयूपारीण, कान्यकुब्ज , जिझौतिया, मैथिल, मराठी, बंगाली, भार्गव, कश्मीरी, सनाढ्य, गौड़, महा-बामन और भी बहुत कुछ। इसी प्रकार ब्राह्मणों में सबसे ज्यादा उपनाम (सरनेम या टाईटल ) भी प्रचलित है। कैसे हुई इन उपनामों की उत्पत्ति जानते हैं उनमें से कुछ के बारे में।

एक वेद को पढ़ने  वाले ब्रह्मण को पाठक कहा गया।

दो वेद पढ़ने वाले को द्विवेदी कहा गया, जो कालांतर में दुबे हो गया।

तीन वेद को पढ़ने वाले को त्रिवेदी कहा गया जिसे त्रिपाठी भी कहने लगे, जो कालांतर में तिवारी हो गया।

चार वेदों को पढ़ने वाले चतुर्वेदी कहलाए, जो कालांतर में चौबे हो गए।

शुक्ल यजुर्वेद को पढ़ने वाले शुक्ल या शुक्ला कहलाए।

चारो वेदों, पुराणों और उपनिषदों के ज्ञाता को पंडित कहा गया, जो आगे चलकर पाण्डेय, पांडे, पंडिया, पाध्याय हो गए।

ये पाध्याय कालांतर में उपाध्याय हुआ। शास्त्र धारण करने वाले या शास्त्रार्थ करने वाले शास्त्री की उपाधि से विभूषित हुए।इनके अलावा प्रसिद्द ऋषियों के वंशजो ने अपने  ऋषिकुल या गोत्र के नाम को ही उपनाम की तरह अपना लिया,

जैसे :- भगवन परसुराम भी भृगु कुल के थे। भृगु कुल के वंशज भार्गव कहलाए, इसी तरह गौतम, अग्निहोत्री, गर्ग, भरद्वाज आदि।

बहुत से ब्राह्मणों को अनेक शासकों ने भी कई  तरह की उपाधियां दी, जिसे बाद में उनके वंशजों ने उपनाम की तरह उपयोग किया।

इस तरह से ब्राह्मणों के उपनाम प्रचलन में आए।

जैसे, राव, रावल, महारावल, कानूनगो, मांडलिक, जमींदार, चौधरी, पटवारी, देशमुख, चीटनीस, प्रधान, *बनर्जी, मुखर्जी, जोशीजी, शर्माजी, भट्टजी, विश्वकर्माजी, मैथलीजी, झा, धर, श्रीनिवास, मिश्रा, मेंदोला, आपटे आदि हजारों सरनेम है।

************ब्राह्मण **************

हमारे देश आर्यावर्त में 7200 विक्रम सम्वत् पूर्व देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा हेतु एक विराट युद्ध राजा सहस्रबाहु सहित समस्त आर्यावर्त के 21 राज्यों के क्षत्रिय राजाओ के विरूद्ध हुआ, जिसका नेतृत्व ऋषि जमदग्नि के पुत्र ब्रह्मऋषि भगवान परशुराम ने किया, इस युद्ध में आर्यावर्त के अधिकतर ब्राह्मणों ने भाग लिया और इस युद्ध में भगवान परशुराम की विजय हुई तथा इस युद्ध के उपरान्त अधिकतर ब्राह्मण अपना धर्मशास्त्र एवं ज्योतिषादि का कार्य त्यागकर समय-समय पर कृषि क्षेत्र में संलग्न होते गये, जिन्हे अयाचक ब्राह्मण व खांडवाय जोकि कालान्तर में त्यागी, भूमिहार, महियाल, पुष्करणा, गालव, चितपावन, नम्बूदरीपाद, नियोगी, अनाविल, कार्वे, राव, हेगडे, अयंगर एवं अय्यर आदि कई अन्य उपनामों से पहचाने जाने लगे।

त्यागी अर्थात भूमिहार आदि ब्रह्मऋषि वंशज यानि अयाचक ब्राह्मणों को सम्पूर्ण भारतवर्ष में विभिन्न उपनामों जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, दिल्ली, हरियाणा व राजस्थान के कुछ भागों में त्यागी, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार व बंगाल में भूमिहार, जम्मू कश्मीर, पंजाब व हरियाणा के कुछ भागों में महियाल, मध्य प्रदेश व राजस्थान में गालव, गुजरात में अनाविल, महाराष्ट्र में चितपावन एवं कार्वे, कर्नाटक में अयंगर एवं हेगडे, केरल में नम्बूदरीपाद, तमिलनाडु में अयंगर एवं अय्यर, आंध्र प्रदेश में नियोगी एवं राव तथा उड़ीसा में दास एवं मिश्र आदि उपनामों से जाना जाता है। अयाचक ब्राह्मण अपने विभिन्न नामों के साथ भिन्न भिन्न क्षेत्रों में अभी तक तो अधिकतर कृषि कार्य करते थे, लेकिन पिछले कुछ समय से विभिन्न क्षेत्रों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं।भूमिहार या ब्राह्मण (अयाचक ब्राह्मण) एक ऐसी सवर्ण जाति है जो अपने शौर्य, पराक्रम एवं बुद्धिमत्ता के लिये जानी जाती है। बिहार, पश्चिचमी उत्तर प्रदेश एवं झारखण्ड में निवास करने वाले भूमिहार जाति अर्थात अयाचक ब्राह्मणों को त्यागी नाम की उप-जाति से जाना व पहचाना जाता हैं।

मगध के महान पुष्य मित्र शुंग और कण्व वंश दोनों ही ब्राह्मण राजवंश भूमिहार ब्राह्मण (बाभन) के थे भूमिहार ब्राह्मण भगवन परशुराम को प्राचीन समय से अपना मूल पुरुष और कुल गुरु मानते है

भूमिहार ब्राह्मण समाज में कुल 10 उपाधिय है-

1-पाण्डेय 2-तिवारी/त्रिपाठी 3- मिश्र 4-शुक्ल 5-यजी 6-करजी 7-उपाध्याय 8-शर्मा 9-ओझा 10-दुबे द्विवेदी 

इसके अलावा राजपाट और ज़मींदारी के कारण एक बड़ा भाग भूमिहार ब्राह्मण का राय ,शाही ,सिंह, उत्तर प्रदेश में और शाही , सिंह (सिन्हा) , चौधरी , ठाकुर आदि बिहार में लिखने लगा बहुत से भूमिहार या बाभन/बामन भी लिखते है..!!

भूमिहार ब्राह्मण जाति ब्राह्मणों के विभिन्न भेदों और शाखाओं के अयाचक लोगो का एक संगठन ही है. प्रारंभ में कान्यकुब्ज शाखा से निकले लोगो को भूमिहार ब्राह्मण कहा गया,उसके बाद सारस्वत , पुष्करणा, महियल , सरयूपारीण , मैथिल(झा) , चितपावन , कन्नड़ आदि शाखाओं के अयाचक ब्राह्मण लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में इन लोगो से सम्बन्ध स्थापित कर भूमिहार ब्राह्मणों में मिलते गए, मगध के ब्राह्मण और मिथिलांचल के पश्चिम तथा प्रयाग के जमींदार ब्राह्मण भी अयाचक होने से भूमिहार गाँव में ही सम्मिलित होते गए…!

भूमिहार ब्राह्मण के कुछ मूलों ( कूरी ) के लोगो का भूमिहार ब्राह्मण रूप में संगठित होने की एक सूची यहाँ दी जा रही है :

1. कान्यकुब्ज शाखा से :- दोनवार ,सकरवार,किन्वार, ततिहा , ननहुलिया, वंशवार के तिवारी, कुढ़ानिया, दसिकर, आदि.

2. सरयूपारी शाखा से : – गौतम, कोल्हा (कश्यप), नैनीजोर के तिवारी , पूसारोड (दरभंगा) खीरी से आये पराशर गोत्री पांडे, मुजफ्फरपुर में मथुरापुर के गर्ग गोत्री शुक्ल, गाजीपुर के भारद्वाजी, मचियाओं और खोर के पांडे, म्लाओं के सांकृत गोत्री पांडे, इलाहबाद के वत्स गोत्री गाना मिश्र ,राजस्थान आदि पश्चिमोत्तर क्षेत्र के पुष्करणा – पुष्टिकरणा – पुष्टिकर ब्राह्मण आदि

3. मैथिल शाखा से : – मैथिल शाखा से बिहार में बसने वाले कई मूल के भूमिहार ब्राह्मण आये हैं.इनमे सवर्ण गोत्री बेमुवार और शांडिल्य गोत्री दिघवय – दिघ्वैत और दिघ्वय संदलपुर प्रमुख है.

4. महियालो से : – महियालो की बाली शाखा के पराशर गोत्री ब्राह्मण पंडित जगनाथ दीक्षित छपरा (बिहार) में एकसार स्थान पर बस गए. एकसार में प्रथम वास करने से वैशाली, मुजफ्फरपुर, चैनपुर, समस्तीपुर, छपरा, परसगढ़, सुरसंड, गौरैया कोठी, गमिरार, बहलालपुर , आदि गाँव में बसे हुए पराशर गोत्री एक्सरिया मूल के भूमिहार ब्राह्मण हो गए.

5. चित्पावन से : – न्याय भट्ट नामक चितपावन ब्राह्मण सपरिवार श्राध हेतु गया कभी पूर्व काल में आये थे.अयाचक ब्राह्मण होने से इन्होने अपनी पोती का विवाह मगध के इक्किल परगने में वत्स गोत्री दोनवार के पुत्र उदय भान पांडे से कर दिया और भूमिहार ब्राह्मण हो गए.पटना डाल्टनगंज रोड पर धरहरा,भरतपुर आदि कई गाँव में तथा दुमका , भोजपुर , रोहतास के कई गाँव में ये चितपावन मूल के कौन्डिल्य गोत्री अथर्व भूमिहार ब्राह्मण रहते हैं.!

6. पुष्करणा / पुष्टिकर से : सिंध, बलोचिस्तान, अविभाजित पंजाब, राजस्थान और गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र में बसने वाले अयाचक ब्राह्मण समूह पुष्करणा ब्राह्मण भी भूमिहार ब्राह्मण यानि अयाचक ब्राह्मण समुदाय ही हैं। भारतीय इतिहास में सिंध – थार के साम्राज्य पर मोहम्मद बिन कासिम के अरब मुस्लिम आक्रमण से पहले का आखिरी ब्राह्मण सम्राट “राजा दाहिरसेन” पुष्करणा ब्राह्मण ही था, पुष्करणा ब्राह्मण शुरूआत से ही कृषि – व्यापार – अध्यापन – ज्योतिष विज्ञान – धर्म शास्त्र व ग्रंथ टीका रचनाओं – सैन्य कार्य – प्रशासन – जमींदारी – दीवानी आदि से जुडे कार्य करते हुऐ भूमिहार रहे हैं। पुष्करणा ब्राह्मण पुरोहिती – कर्मकांड / याचक द्वारा जीवन यापन नहीं करते रहे हैं।

भूमिपति ब्राह्मणों के लिए पहले जमींदार ब्राह्मण शब्द का प्रयोग होता था..याचक ब्राह्मणों के एक दल ने ने विचार किया की जमींदार तो सभी जातियों को कह सकते हैं,फिर हममे और जमीन वाली जातियों में क्या फर्क रह जाएगा.काफी विचार विमर्श के बाद ” भूमिहार ब्राह्मण ” शब्द अस्तित्व में आया.

1.) बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में- भूमिहार

2.) पंजाब एवं हरियाणा में – मोहयाल

3.) जम्मू कश्मीर में – पंडित, सप्रू, कौल, दार / डार , काटजू आदि

4.) मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश में आगरा के निकटस्थ – गालव

5.) उत्तर प्रदेश में – त्यागी एवं भूमिहार।

6.) गुजरात में – अनाविल ;देसाई जोशी, मेहताद्ध – मेहता

7.) महाराष्ट्र में – चितपावन

8.) कर्नाटक में – चितपावन

9.) पश्चिमी बंगाल – भादुड़ी, चक्रवर्ती, गांगुली, मैत्रा, सान्याल आदि।

10.) उड़ीसा में – दास, मिश्र

11.) तमिलनाडू में – अयर, आयंगर

12.) केरल में – नंबूदरीपाद“

13.) राजस्थान में – बांगर, पुष्कर्णा/पुष्टिकरणा /पुष्कर्ण, पुरोहित, रंग/ रंगा एवं रूद्र, बागड़ा.”

14.) आन्ध्रप्रदेश में – राव और नियोगी।कुछ विद्वानों को सुझाव है कि भूमिहार उन ब्राह्मणों में एक है जिनकी गंगा के मैदान में इतिहास के विभिन्न अवधियों के माध्यम से भूमि और राजनीतिक सत्ता पर पकड़ थी, उसी तरह सरस्वती नदी सहित अन्य नदियां जो पश्चिमी सीमांत पंजाब सिंध गुजरात में बहती थी के क्षेत्र में सारस्वत एवं पुष्टिकर पुष्करणा जातियों के लोग रहते थे।

सिंधु नदी के भेद से सैंधु मणेचा भेद की भी स्थिति रही थी। द्रव (पानी) द्रविड़ पुष्करिणी (नदी) तथा पुष्टिकर परंपरा के साथ जुड़े समूह नाम हैं। सारस्वत की यात्रा केरल तक हुई थी जबकि पुष्टिकर समुदाय महाराष्ट्र की आरंभिक सीमा से आगे नहीं निकला था। क्षेत्र दृष्टि से पंच द्रविड़ परंपरा के गुण अधिक हैं।

विगत 1200 वर्ष के कालखंड में जब विदेशी आक्रमणकारियों का प्रभाव रहा है तो सिंध प्रांत के पुष्टिकर मुस्लिम भी बने तथा बगदाद में गणित ज्योतिष विज्ञान भी लेकर गए और राजस्थान की ओर भी पलायन हुआ।

काशी की पुष्टि तथा वहां पीठ की बात भी परंपरा में है जो सरस्वती के लुप्त पोखर रूप में होने पर बनी तथा प्रयाग की तीसरी नदी की परंपरा भी वहीं से बनी है।

विद्यानुरागी व संतोषी वृत्ति की पहचान भी उचित है। उष्ट्रवाहिनी थार से बलूच या आगे तक की/से यात्रा व पलायन को दर्शाती है।

तदुपरांत वैष्णव परंपरा को अपनाते हुए समुदाय की पहचान जय श्री कृष्ण से भी दर्शाती है।

बिहार एवं उत्तरप्रदेश सहित लगते क्षेत्र में कुछ प्रमुख भूमिहार उपनाम यथासंभव निम्नलिखित हैं जिनमें सुधार व बढत की पूरी गुंजाइश है।

ठाकुर: मुजफ्फरपुर निवासी उपनाम के रूप में ठाकुर

धरी: चौधरी – मुजफ्फरपुर, कटिहार, पूर्णिया में . कुछ बंगाली ब्राह्मण और मैथिल ब्राह्मणों को भी MP में चौधरी कहते हैं.. निखिल चौधरी और उद्योगपति श्री दुर्गा चौधरी पूर्णिया से हैं.

शर्मा: भूमिहार ब्राह्मणों के बड़े वर्ग के रूप में शर्मा उपनाम है.प्रसिद्ध राष्ट्रवादियों में शुमार और किसान नेता पंडित कर्यानंद शर्मा और पंडित जदुनंदन शर्मा, वामपंथी इतिहासकार आर.एस. शर्मा जैसे नेता शामिल हैं.*

तिवारी – ओझा: छपरा में कुछ गांवों औरमुजफ्फरपुर ओझा सरनाम भी भूमिहार है.श्री डी पी ओझा, पूर्व डीजीपी,बिहार.*

मिश्र – मधुबनी और छपरा में मिश्र उपनाम के रूप में है.*

पांडे / पाण्डेय : सहबद और छपरा क्षेत्रों में.अमर शहीद मंगल पांडे व रघुनाथ पाण्डेय आदि*

शाही: वे मुजफ्फरपुर में पाए जाते हैं और देवरिया और गोपालगंज (सरन) के कुछ हिस्सों में भी. हथवा नरेश उपनाम, एल.पी.शाही (कांग्रेस नेता).*

शुक्ल: वे भी वैशाली में पाए जाते हैं*

पंजाब में “दत्त” – महिवाल या मोह्यल- मोहयाली से लिया, सर गणेश दत्त सिंह, फिल्म अभिनेता सुनील दत्त, संजय दत्त आदि* प्रसाद : ये भूमिहार बख्तियारपुर से हैं.*

करजी : मुजफ्फरपुर* द्विवेदी : सीतामढ़ी और पश्चिम चंपारण भूमि से*

यहोवा – योजा सरीखे भूमिहार उपनाम के रूप में.*

द्विवेदी – उपाध्याय: रोहतास / कैमूर उपाध्याय उपनाम*

राय नाम के लगभग सभी भूमिहार पूर्वी उत्तर प्रदेश से भूमिहार उपनाम के रूप में है और इन्ही इलाकों में खावं खान / खावं या सिर्फ ‘खान’ भी भूमिहार का एक उपनाम पाया जाता है।

भूमिहार ब्राह्मणों के इतिहास को पढने से पता चलता है की अधिकांश समाजशास्त्रियों ने भूमिहार ब्राह्मणों को कान्यकुब्ज की शाखा माना है.

भूमिहार ब्राह्मण का मूलस्थान मदारपुर है जो कानपुर – फरूखाबाद की सीमा पर बिल्हौर स्टेशन के पास है….

1528 में बाबर ने मदारपुर पर अचानक आक्रमण कर दिया.इस भीषण युद्ध में वहाँ के ब्राह्मणों सहित सब लोग मार डाले गए इस हत्याकांड से किसी प्रकार अनंतराम ब्राह्मण की पत्नी बच निकली थी जो बाद में एक बालक को जन्म दे कर इस लोक से चली गई , इस बालक का नाम गर्भू तिवारी रखा गया..!!

गर्भू तिवारी के खानदान के लोग कान्यकुब्ज प्रदेश के अनेक गाँव में बसते है.कालांतर में इनके वंशज उत्तर प्रदेश तथा बिहार के विभिन्न गाँव में बस गए,गर्भू तिवारी के वंशज भूमिहार ब्राह्मण कहलाये इनसे वैवाहिक संपर्क रखने वाले समस्त ब्राह्मण भी कालांतर में भूमिहार ब्राह्मण कहलाये ,,,!

           अंग्रेजो ने यहाँ के सामाजिक स्तर का गहन अध्ययन कर अपने गजेटियरों एवं अन्य पुस्तकों में भूमिहारो के उपवर्गों का उल्लेख किया है, गढ़वाल काल के बाद मुसलमानों से त्रस्त भूमिहार ब्राह्मणों ने जब कान्यकुब्ज क्षेत्र से पूर्व की ओर पलायन प्रारंभ किया और अपनी सुविधानुसार यत्र तत्र बस गए तो अनेक उपवर्गों के नाम से संबोधित होने लगे,यथा – ड्रोनवार , गौतम , कान्यकुब्ज , जेथारिया आदि अनेक कारणों,अनेक रीतियों से उपवर्गों का नामकरण किया गया.कुछ लोगो ने अपने आदि पुरुष से अपना नामकरण किया और कुछ लोगो ने गोत्र से.कुछ का नामकरण उनके स्थान से हुवा जैसे – सोनभद्र नदी के किनारे रहने वालो का नाम सोन भरिया, सरस्वती नदी के किनारे वाले सर्वारिया,,सरयू नदी के पार वाले सरयूपारी , आद् मूलडीह के नाम पर भी कुछ लोगो का नामकरण हुआ जैसे जेथारिया , हीरापुर पण्डे ,वेलौचे ,मचैया पाण्डे , कुसुमि तेवरी , ब्रह्मपुरिये , दीक्षित , जुझौतिया आदि.★

भूमिहार ब्राह्मण और सरयुपारिन ब्राह्मण –पिपरा के मिसिर ,सोहगौरा के तिवारी ,हिरापुरी पांडे, घोर्नर के तिवारी ,माम्खोर के शुक्ल,भरसी मिश्र,हस्त्गामे के पांडे,नैनीजोर के तिवारी ,गाना के मिश्र ,मचैया के पांडे,दुमतिकार तिवारी ,आदि.भूमिहार ब्राह्मन और सर्वरिया (सरयूपारिण ) दोनों में हैं.वरन भूमिहार ब्राह्मण में कुछ लोग अपने को “सर्वरिया” ही कहते है.सर एच.एलिअत का कथन है – ” वे ही ब्राह्मण भूमि का मालिक होने से भूमिहार कहलाने लगे और भूमिहारों को अपने में लेते हुए सर्वारिया लोग पूर्व में कनौजिया से मिल जाते हैं★

भूमिहार ब्राह्मण पुरोहित –भूमिहार ब्राह्मण कुछ जगह प्राचीन समय से पुरोहिती करते चले आ रहे है अनुसंधान करने पर पता लगा कि प्रयाग की त्रिवेणी के सभी पंडे भूमिहार ही तो हैं, हजारीबाग के इटखोरी और चतरा थाने के 8-10 कोस में बहुत से भूमिहार ब्राह्मण, राजपूत,बंदौत , कायस्थ और माहुरी आदि की पुरोहिती सैकड़ों वर्ष से करते चले आ रहे हैं और गजरौला, ताँसीपुर के त्यागी राजपूतों की यही इनका पेशा है। गया के देव के सूर्यमंदिर के पुजारी भूमिहार ब्राह्मण ही मिले। इसी प्रकार और जगह भी कुछ न कुछ यह बात किसी न किसी रूप में पाई गई। हलाकि गया देव के सूर्यमंदिर का बड़ा हिस्सा शाकद्विपियो को बेचा जा चूका है!ब्राह्मण की उत्पत्तिइस परिप्रेक्ष्य में अब हम ब्राह्मण की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विचार करें, हमारा शास्त्र कहता है :-

(1) ब्राह्मणो स्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृत:।ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥ (अध्याय 31(11) पुरुष सूक्त, यजुर्वेद)(2) चतुर्वर्णम् मयाश्रिष्ठ्यम् गुणकर्माविभागशः(गीता)यजुर्वेद 31 वें अध्याय के पुरुष सूक्त श्लोक संख्या 11 की पुष्टि ऋग्वेद, और अथर्ववेद के साथ श्रीमद्भागवतपुराण ने भी की है,,

इसका सटीक अर्थ समझने के लिए हमें पहले यजुर्वेद के श्लोक सं. 10 का अर्थ समझना होगा, दसवें श्लोक में पूछा गया है कि “उस विराट पुरुष का मुख कौन है, बाजू कौन है, जंघा कौन है तथा पैर कौन है?

इसके उत्तर में श्लोक सं. 11 आता है जिसमे कहा गया है कि –“ ब्राह्मण ही उसका मुख है, क्षत्रिय बाजू है, वैश्य जंघा है और शूद्र पैर है”यह कहीं नहीं लिखा है कि प्रजापति (ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण, बाजूओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पैरों से शुद्र पैदा हुए, ऐसा आजकल प्रचलित अर्थ मात्र कुअर्थ है, दुष्प्रचार हेतु भ्रान्ति मात्र है,,,

हम तो उस दिन की कल्पना भर कर सकते हैं जब अणुओं के टकराव और विष्फोट से उत्पन्न हिग्स बोसोन या (God Particle) श्रृष्टि की रचना का पूरा सिद्धांत 40-50 वर्षों में बदल देगा,

तब ब्राह्मण न तो मुख से पैदा हुआ माना जायेगा और नहीं शुद्र पैरों से.. !!

ब्राह्मणों के कार्य –अध्यापनमध्यायनं च याजनं यजनं तथा।दानं प्रतिग्रहश्चैव षट् कर्माण्यग्र जन्मन:॥ 1०।75

मनुस्मृति के इस श्लोक के अनुसार ब्राह्मणों के छह कर्म हैं, साधारण सी भाषा में कहें तो अध्ययन-अध्यापन(पढ़ना-पढाना), यज्ञ करना-कराना, और दान देना-लेना!

इन कार्यों को दो भागों में बांटा गया है, धार्मिक कार्य और जीविका के कार्य,,,,अध्ययन,यज्ञ करना और दान देना धार्मिक कार्य हैं तथा अध्यापन, यज्ञ कराना (पौरोहित्य) एवं दान लेना ये तीन जीविका के कार्य हैं ब्राह्मणों के कार्य के साथ ही इनके दो विभाग बन गएएक ने ब्राह्मणों के शुद्ध धार्मिक कर्म (अध्ययन, यज्ञ और दान देना)

अपनाये और दूसरे ने जीविका सम्बन्धी (अध्यापन, पौरोहित्य तथा दान लेना) कार्यजिस तरह यज्ञ के साथ दान देना अंतर्निहित है वैसे ही पौरोहित्य अर्थात यज्ञ करवाने के साथ दान लेनाइस तरह वास्तव में ब्राह्मणों के चार ही कार्य हुए – अध्ययन और यज्ञ तथा अध्यापन और पौरोहित्य !!

★ याचकत्व और अयाचकत्व –ब्राह्मणों के कर्म विभाजन से मुख्यतः दो शाखाएं स्तित्व में आयीं – पौरोहित्यकर्मी या कर्मकांडी याचक एवं अध्येता और यजमान अयाचकयह भी सिमटकर दो रूपों में विभक्त होकर रह गया – दान लेने वाला याचक और दान देने वाल अयाचकसत्ययुग से ही अयाचक्त्व की प्रधानता रही!विभिन्न पुराणों, बाल्मीकिरामायण और महाभारत आदि में आये सन्दर्भों से पता चलता है कि याचकता पर सदा अयाचकता की श्रेष्टता रही है, प्रतिग्रह आदि तो ब्राह्मणोचित कर्म नहीं हैं जैसा कि मनु जी ने कहा है कि :-

प्रतिग्रह समर्थोपि प्रसंगं तत्रा वर्जयेत्।
प्रतिग्रहेण ह्यस्याशु ब्राह्मं तेज: प्रशाम्यति॥ (म.स्मृ. 4/186)

‘यदि ब्राह्मण प्रतिग्रह करने में सामर्थ्य भी रखता हो (अर्थात् उससे होनेवाले पाप को हटाने के लिए जप और तपस्यादि भी कर सकता हो) तो भी प्रतिग्रह का नाम भी न ले, क्योंकि उससे शीघ्र ही ब्रह्मतेज (ब्राह्मणत्व) का नाश हो जाता है’।जैसा रामायण में स्पष्ट लिखा हैं और ब्रह्मर्षि वशिष्ट ने भी कहा है कि –

‘उपरोहिती कर्म अतिमन्दा।वेद पुराण स्मृति कर निन्दा।’

★ भू-धन का प्रबंधन –दंडीस्वामी श्री सहजानंद सरस्वती जी के अनुसार अयाचकता और याचकता किसी विप्र समाज या जाति का धर्म न होकर व्यक्ति का धर्म हैं। जो आज अयाचक हैं कल वह चाहे तो याचक हो सकता हैं और याचक अयाचक। इसी सिद्धांत और परम्परा के अनुसार जब याचक ब्राह्मणों को दान स्वरूप भू-संपत्ति और ग्राम दान मिलने लगे तो याचकों को भू-धन प्रबंधन की जटिलताएं सताने लगींपौरोहित्य जन्य कर्मों में संलग्न याचक वर्ग दान में मिली भू-सम्पत्तियों के प्रबंधन के लिए समय नहीं निकाल पा रहा था!इसलिए आंतरिक श्रम विभाजन के सिद्धांत पर आपसी सहयोग और सम्मति से परिवार के कुछ सदस्य अपनी रूचि अनुसार भू-प्रबंधन में संलग्न हो गए!ब्राह्मणों के पेशागत परिवर्तन के उदाहरण वैदिक काल में परशुराम, द्रोण, कृप, अश्‍वत्थामा, वृत्र, रावण एवं ऐतिहासिक काल में शुंग, शातवाहन, कण्व, अंग्रेजी काल में काशी की रियासत, दरभंगा, बेतिया, हथुआ, टिकारी, तमकुही, सांबे, मंझवे, आदि के जमींदार हैं।

★ भूदान-धन प्रबन्धक की विशेषताएं एवं इतिहास एवं ब्राह्मण की विशेष शाखा का उद्भव –आज भी किसी परिवार में प्राकृतिक श्रम विभाजन के सिद्धांत पर हर सदस्य अपनी रूचि अनुसार अलग-अलग काम स्वतः ले लेता है, कोई सरकारी दफ़्तर और कोर्ट कचहरी का काम संभालता है तो कोई पशुधन प्रबंधन में लग जाता है तो कोई ग्राम संस्कृति में संलग्न हो ढोलक बजाने लगता है तो कोई साधारण से लेकर ऊँची-ऊँची नौकरियां करने लगता है तो कोई पूजा-पाठ यज्ञादि में संलग्न हो जाता हैठीक यही हाल याचकता और अयाचकता के विभाजन के समय हुआ, हालांकि उस समय किसी के उत्कृष्ट और किसी के निकृष्ट होने की कल्पना भी नहीं थी, भू-संपत्ति प्रबंधन में संलग्न परिवार शुद्ध अयाचकता की श्रेणी में अपने को ढालता गयायाचकों की आर्थिक विपन्नता और अयाचकों की भू-सम्पदाजन्य सम्पन्नता काल-क्रम से उत्तरोत्तर बढ़ती गई तथापि याचकों के सामाजिक प्रभाव और आत्मसम्मान में कोई कमी नहीं थी, ऐसा भी नही था कि याचक ब्राह्मण कृषि कार्य नही करता था लेकिन उसके पास विशेषज्ञता की कमी थी और आत्मसम्मान की अधिकता !

वाल्मीकी रामायण के के अयोध्या कांड बत्तीसवें सर्ग के 29-43 वें श्लोक में गर्ग गोत्रीय त्रिजट नामक ब्राह्मण की कथा से अयाचक से याचक बनने का सटीक उदाहरण मिलता है:-

“तत्रासीत् पिंगलो गार्ग्यः त्रिजटो नाम वै द्विजक्षतवृत्तिर्वने नित्यं फालकुद्दाललांगली। ॥ 29॥

”इस आख्यान से यह भी स्पष्ट हैं कि दान लेना आदि स्थितिजन्य गति हैं, और काल पाकर याचक ब्राह्मण अयाचक और अयाचक ब्राह्मण याचक हो सकते हैं और इसी प्रकार अयाचक और याचक ब्राह्मणों के पृथक्-पृथक् दल बनते और घटते-बढ़ते जाते हैंइसी तरह के संदर्भ का द्वापरकालीन महाभारत में युधिष्ठिर को राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों द्वारा गोधन आदि भू-संपदा के उपहार और दान का वर्णन दुर्योधन द्वारा शकुनि के समक्ष किया गया है!

★ त्रेता-द्वापर संधिकाल में क्षत्रियत्व का ह्रास एवं अयाचक भू-धन प्रबन्धक द्वारा क्षात्रजन्य कार्यों का संचालन –मनुजी स्पष्ट लिखते हैं कि :

सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च।
सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्र विदर्हति॥ 100॥

अर्थात ”सैन्य और राज्य-संचालन, न्याय, नेतृत्व, सब लोगों पर आधिपत्य, वेद एवं शास्त्रादि का समुचित ज्ञान ब्राह्मण के पास ही हो सकता है, न कि क्षत्रियादि जाति विशेष को।”स्कन्दपुराण के नागर खण्ड 68 और 69वें अध्याय में लिखा हैं कि जब कर्ण ने द्रोणाचार्य से ब्रह्मास्त्र का ज्ञान माँगा हैं तो उन्होंने उत्तर दिया हैं कि :

ब्रह्मास्त्रां ब्राह्मणो विद्याद्यथा वच्चरितः व्रत:।

क्षत्रियो वा तपस्वी यो नान्यो विद्यात् कथंचन॥ 13॥

अर्थात् ”ब्रह्मास्त्र केवल शास्त्रोक्ताचार वाला ब्राह्मण ही जान सकता हैं, अथवा क्षत्रिय जो तपस्वी हो, दूसरा नहीं।

यह सुन वह परशुरामजी के पास, “मैं भृगु गोत्री ब्राह्मण हूँ,” ऐसा बनकर ब्रह्मास्त्र सीखने गया हैं।” इस तरह ब्रह्मास्त्र की विद्या अगर ब्राह्मण ही जान सकता है तो युद्ध-कार्य भी ब्राह्मणों का ही कार्य हुआ ,

उन विभिन्न युगों में भी ब्राह्मणों के अयाचक दल ने ही पृथ्वी का दायित्व संभाला, इससे बिना शंका के यह सिद्ध होता है कि भू-धन प्रबन्धक अयाचक ब्राह्मण सत्ययुग से लेकर कलियुग तक थे और अपनी स्वतंत्र पहचान बनाये रखी हालांकि वे अयाचक ब्राह्मण की संज्ञा से ही विभूषित रहे ,साहस, निर्णय क्षमता, बहादुरी, नेतृत्व क्षमता और प्रतिस्पर्धा की भावना इनमे कूट-कूटकर भरी थी तथा ये अपनी जान-माल ही नहीं बल्कि राज्य की सुरक्षा के लिए भी शक्तिसंपन्न थे!

★ क्षत्रियत्व का ह्रास –प्राणी रक्षा के दायित्व से जब क्षत्रिय च्युत हो निरंकुश व्यभिचारी और अधार्मिक कार्यों एवं भोग विलास में आकंठ डूब गए तो ब्रह्मर्षि परशुराम जी ने उनका विभिन्न युगों में २१ बार संहार किया और पृथ्वी का दान और राज ब्राह्मणों को दे दियाअब भी यह प्रश्न उठता है कि अगर परशुराम जी ने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रिय-विहीन कर दिया तो बाद में क्षत्रिय कहाँ से आ गए? उत्तर यह है कि हालाँकि पौराणिक इतिहास में कहीं भी ऐसा संदर्भ नहीं है की उन्होंने क्षत्रियों के साथ क्षत्राणियों का भी संहार किया यानि नारी सदा अवध्य ही रही!उन्हीं अवध्य जीवित क्षत्राणियों से ब्राह्मणों ने जो संतानें पैदा कीं वे क्षत्रिय कहलाये इसलिए क्षत्रिय भी ब्राह्मणों की ही संतानें हुईं , शास्त्र भी कहता है की ब्राह्मण वीर्य और क्षत्रिय रज से उत्पन्न संतान क्षत्रिय ही होती हैं ब्राह्मण नहीं,,महाभारत में अर्जुन ने युधिष्ठिर से शान्तिपर्व में कहा है कि:

ब्राह्मणस्यापि चेद्राजन् क्षत्राधार्मेणर् वत्तात:।
प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रांहि ब्रह्मसम्भवम्॥।। अ.।। 22॥

”हे राजन्! जब कि ब्राह्मण का भी इस संसार में क्षत्रिय धर्म अर्थात् राज्य और युद्धपूर्वक जीवन बहुत ही श्रेष्ठ हैं, क्योंकि क्षत्रिय ब्राह्मणों से ही उत्पन्न हुए हैं, तो आप क्षत्रिय धर्म का पालन करके क्यों शोक करते हैं?’★

★ कलियुग में अयाचक भू-धन प्रबंधक की स्वतंत्र पहचान व ब्राह्मणों में सर्वोच्च अधिकार –

कलियुग में इस भू-प्रबन्धक की लिखित और अमिट छाप ईशा पूर्व से स्पष्ट परिलक्षित होती है सिकंदर ने जब 331 ईशापूर्व आर्यावर्त पर आक्रमण किया था तो उसके साथ उसका धर्मगुरु अरस्तू भी साथ आया था , 

अरस्तू ने क्षत्रियों की अराजकता और अकर्मण्यता के संदर्भ में उस समय के भारत की जो दुर्दशा देखी उसका बहुत ही रोचक चित्रण अपने स्मरण ग्रन्थ में इस तरह किया है:-

“Now the ideas about castes and profession, which have been prevalent in Hindustan for a very long time, are gradually dying out, and the Brahmans, neglecting their education.live by cultivating the land and acquiring the territorial possessions, which is the duty of Kshatriyas. If things go on in this way, then instead of being (विद्यापति) i.e. Master of learning, they will become (भूमिपति) i.e. Master of land”.“

जो विचारधारा, कर्म और जाति प्रधान भारतवर्ष में प्राचीन काल से प्रचलित थी, वह अब धीरे-धीरे ढीली होती जा रही हैं और ब्राह्मण लोग विद्या विमुख हो ब्राह्मणों चित कर्म छोड़कर भू-संपत्ति के मालिक बनकर कृषि और राज्य प्रशासन द्वारा अपना जीवन बिता रहे हैं जो क्षत्रियों के कर्म समझे जाते हैं। यदि यही दशा रही तो ये लोग विद्यापति होने के बदले भूमिपति हो जायेगे।”

आज हम कह सकते हैं कि अरस्तू की भविष्यवाणी कितनी सटीक और सच्ची साबित हुई!

In the year 399 A.D. a Chinese traveler, Fahian said “owing to the families of the Kshatriyas being almost extinct, great disorder has crept in. The Brahmans having given up asceticism….are ruling here and there in the place of Kshatriyas, and are called ‘Sang he Kang”, which has been translated by professor Hoffman as ‘Land seizer’.

अर्थात “क्षत्रिय जाति करीब करीब विलुप्त सी हो गई है तथा बड़ी अव्यवस्था फ़ैल चुकी है ,

ब्राह्मण धार्मिक कार्य छोड़ क्षत्रियों के स्थान पर राज्य शासन कर रहे हैं भू यद्यपि अयाचक ब्राह्मणों द्वारा राज्याधिकार और राज्य संचालन का कार्य हरेक युग में होता रहा है लेकिन ईशापूर्व चौथी- पांचवीं सदी से तो यह कार्य बहुत ही ज्यादा प्रचलित हो गया और इसने करीब-करीब एक परम्परा का रूप ले लिया इसमें सर्व प्रमुख नाम 330 ई.पू. सिकंदर से लोहा लेने वाले सारस्वत गोत्रीय महियाल ब्राह्मण राजा पोरस, 500 इस्वी सुधा जोझा, 700 ईस्वी राजा छाच, और 1001 ईस्वी में अफगानिस्तान में जयपाल, आनंदपाल और सुखपाल आदि महियाल ब्राह्मण राजा का नाम आता है जैसा कि स्वामी सहजानंद सरस्वती ने ‘ब्रह्मर्षि वंशविस्तर’ में लिखा है!

★ भू-धन प्रबंधक ब्राह्मणों में “भूमिहार” शब्द का प्रथम ज्ञात प्रचलन – हालांकि भूमिहार शब्द का पहला जिक्र बृहतकान्यकुब्जवंशावली 1526 ई. में आया है लेकिन सरकारी अभिलेखों में प्रथम प्रयोग 1865 की जनगणना रिपोर्ट में हुआ है इसके पहले गैर सरकारी रूप में इतिहासकार बुकानन ने 1807 में पूर्णिया जिले की सर्वे रिपोर्ट में किया है इनमे लिखा है:-

“भूमिहार अर्थात अयाचक ब्राह्मण एक ऐसी सवर्ण जाति जो अपने शौर्य, पराक्रम एवं बुद्धिमत्ता के लिये जानी जाती है। इसका गढ़ बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश है ,,

पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा में निवास करने वाले भूमिहार जाति अर्थात अयाचक ब्राह्मणों को त्यागी नाम की उप-जाति से जाना व पहचाना जाता हैं।“एम.ए. शेरिंग ने 1872 में अपनी पुस्तक ‘Hindu Tribes & Caste’ में कहा

“भूमिहार जाति के लोग हथियार उठाने वाले ब्राह्मण हैं (सैनिक ब्राह्मण)।

पं. परमेश्वर शर्मा ने ‘सैनिक ब्राह्मण’ नामक पुस्तक भी लिखी हैअंग्रेज विद्वान मि. बीन्स ने लिखा है –“भूमिहार एक अच्छी किस्म की बहादुर प्रजाति है, जिसमे आर्य जाति की सभी विशिष्टताएं विद्यमान है।

ये स्वाभाव से निर्भीक व हावी होने वालें होते हैं।“‘विक्रमीय संवत् 1584 (सन् 1527) मदारपुर के अधिपति भूमिहार ब्राह्मणों और बाबर से युद्ध हुआ और युद्धोपरांत भूमिहार मदारपुर से पलायन कर यू.पी. एवं बिहार के बिभिन्न क्षेत्रों में फ़ैल गए , गौड़, कान्यकुब्ज, सर्यूपारीण , मैथिल, सारस्वत,पुष्करणा, दूबे और तिवारी आदि नाम प्राय: ब्राह्मणों में प्रचलित हुए, वैसे ही भूमिहार या भुइंहार नाम भी सबसे प्रथम कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के एक अयाचक दल विशेष में प्रचलित हुआ और

सिंध का अंतिम हिंदू, ब्राह्मण ‘राजा दाहिरसेन’ भी भूमिहार पुष्करणा ब्राह्मण था जो अरब के मुसलमान लुटेरे आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम के साथ सैन्य युद्ध में मारा गया!

भूमिहार शब्द सबसे प्रथम ‘बृहत्कान्यकुब्जकुलदर्पण’ (1526) के 117वें पृष्ठ पर मिलता है ,

इसमें लिखा हैं कि कान्यकुब्ज ब्राह्मण के निम्नलिखित पांच प्रभेद हैं:-

(1) प्रधान कान्यकुब्ज(2) सनाढ्य(3) सरवरिया(4) जिझौतिया(5) भूमिहार

सन् 1926 की कान्यकुब्ज महासभा का जो 19वाँ वार्षिक अधिवेशन प्रयाग में जौनपुर के राजा श्रीकृष्णदत्तजी दूबे, की अध्यक्षता में हुई थीस्वागताध्यक्ष जस्टिस गोकरणनाथ मिश्र ने भी भूमिहार ब्राह्मणों को अपना अंग माना है

★ जमींदार/भूमिहार –यद्यपि इनकी संज्ञा प्रथम जमींदार या जमींदार ब्राह्मण थी लेकिन एक तो, उसका इतना प्रचार न था, दूसरे यह कि जब पृथक्-पृथक् दल बन गये तो उनके नाम भी पृथक-पृथक होने चाहिए परन्तु जमींदार शब्द तो जो भी जाति भूमिवाली हो उसे कह सकते हैं इसलिए विचार हुआ कि जमींदार नाम ठीक नहीं हैं क्योंकि पीछे से इस नामवाले इन अयाचक ब्राह्मणों के पहचानने में गड़बड़ होने लगेगी इसी कारण से इन लोगों ने अपने को भूमिहार या भुइंहार कहना प्रारम्भ कर दिया।हालांकि जमींदार और भूमिहार शब्द समानार्थक ही हैं, तथापि जमींदार शब्द से ब्राह्मण से अन्य क्षत्रिय आदि जातियाँ भी समझी जाती हैं, परन्तु भूमिहार शब्द से साधारणत: प्राय: केवल अयाचक ब्राह्मण विशेष ही क्योंकि उसी समाज के लिए उसका संकेत किया गया हैं।

आईन-ए-अकबरी, उसके अनुवादकों और उसके आधार पर इतिहास लेखकों के भी मत से भूमिहार ब्राह्मण लोग ब्राह्मण सिद्ध होते हैं।

कृषि करने वाले या जागीर प्राप्त करने बाले भूमिहारों के लिए ‘जुन्नारदार’ शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका मतलब होता है “जनेऊ पहनने वाला ब्राह्मण”फिर वहाँ भूमिहार लोग ब्राह्मण हैं या नहीं इस संशय की जगह ही कहाँ हैं??★

★ जाति के रूप में भूमिहारो का संगठन –भूमिहार ब्राह्मण जाति ब्राह्मणों के विभिन्न भेदों और शाखाओं के अयाचक लोगो का एक संगठन है प्रारंभ में कान्यकुब्ज शाखा से निकले लोगों को भूमिहार ब्राह्मण कहा गया,

उसके बाद सारस्वत, महियल, सरयूपारीण , मैथिल, पुष्करणा / पुष्टिकरणा , चितपावन, कन्नड़ आदि शाखाओं के अयाचक ब्राह्मण लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में इन लोगो से सम्बन्ध स्थापित कर भूमिहार ब्राह्मणों में मिलते गए, मगध के बाभनो और मिथिलांचल के पश्चिमा तथा प्रयाग के जमींदार ब्राह्मण भी अयाचक होने से भूमिहार ब्राह्मणों में ही सम्मिलित होते गए ।
सरयूपारीण ब्राह्मण🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸

              सरयूपारी ब्राह्मण सरयू बसे हुए ब्राह्मणों को कहा जाता है। यह कान्यकुब्ज ब्राह्मणो कि शाखा है। श्रीराम ने लंका विजय के बाद कान्यकुब्ज ब्राह्मणों से यज्ञ करवाकर उन्हे सरयु पार स्थापित किया था। सरयु नदी को सरवार भी कहते थे। ईसी से ये ब्राह्मण सरयुपारी ब्राह्मण कहलाते हैं। सरयुपारी ब्राह्मण पूर्वी उत्तरप्रदेश, उत्तरी मध्यप्रदेश, बिहार छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में भी होते हैं। मुख्य सरवार क्षेत्र पश्चिम मे उत्तर प्रदेश राज्य के अयोध्या शहर से लेकर पुर्व मे बिहार के छपरा तक तथा उत्तर मे सौनौली से लेकर दक्षिण मे मध्यप्रदेश के रींवा शहर तक है।

काशी, प्रयाग, रीवा, बस्ती, गोरखपुर, अयोध्या, छपरा इत्यादि नगर सरवार भूखण्ड में हैं।

एक अन्य मत के अनुसार श्री राम ने कान्यकुब्जो को सरयु पार नहीं बसाया था बल्कि रावण जो की ब्राह्मण थे उनकी हत्या करने पर ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए जब श्री राम ने भोजन ओर दान के लिए ब्राह्मणों को आमंत्रित किया तो जो ब्राह्मण स्नान करने के बहाने से सरयू नदी पार करके उस पार चले गए ओर भोजन तथा दान समंग्री ग्रहण नहीं की वे ब्राह्मण सरयुपारीन ब्राह्मण कहे गए। 

सरयूपारीण ब्राहमणों के मुख्य गाँव :

🔸🔸🔹🔸 गर्ग (शुक्ल- वंश) 🔸🔹🔸🔸

गर्ग ऋषि के तेरह लडके बताये जाते है जिन्हें गर्ग गोत्रीय, पंच प्रवरीय, शुक्ल बंशज कहा जाता है जो तेरह गांवों में बिभक्त हों गये थे| गांवों के नाम कुछ इस प्रकार है| (१) मामखोर (२) खखाइज खोर (३) भेंडी (४) बकरूआं (५) अकोलियाँ (६) भरवलियाँ (७) कनइल (८) मोढीफेकरा (९) मल्हीयन (१०) महसों (११) महुलियार (१२) बुद्धहट (१३) इसमे चार गाँव का नाम आता है लखनौरा, मुंजीयड, भांदी, और नौवागाँव| ये सारे गाँव लगभग गोरखपुर, देवरियां और बस्ती में आज भी पाए जाते हैं।

उपगर्ग (शुक्ल-वंश): 🔸🔸🔹🔸🔸 

उपगर्ग के छ: गाँव जो गर्ग ऋषि के अनुकरणीय थे कुछ इस प्रकार से हैं| (१)बरवां (२) चांदां (३) पिछौरां (४) कड़जहीं (५) सेदापार (६) दिक्षापार यही मूलत: गाँव है जहाँ से शुक्ल बंश का उदय माना जाता है यहीं से लोग अन्यत्र भी जाकर शुक्ल बंश का उत्थान कर रहें हैं यें सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं।

गौतम (मिश्र-वंश): 🔸🔸🔹🔸🔸

गौतम ऋषि के छ: पुत्र बताये जातें हैं जो इन छ: गांवों के वाशी थे| (१) चंचाई (२) मधुबनी (३) चंपा (४) चंपारण (५) विडरा (६) भटीयारी इन्ही छ: गांवों से गौतम गोत्रीय, त्रिप्रवरीय मिश्र वंश का उदय हुआ है, यहीं से अन्यत्र भी पलायन हुआ है ये सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं।

उप गौतम (मिश्र-वंश): 🔸🔸🔹🔹🔸🔸

उप गौतम यानि गौतम के अनुकारक छ: गाँव इस प्रकार से हैं| (१) कालीडीहा (२) बहुडीह (३) वालेडीहा (४) भभयां (५) पतनाड़े (६) कपीसा इन गांवों से उप गौतम की उत्पत्ति मानी जाति है।

वत्स गोत्र (मिश्र- वंश): 🔸🔸🔹🔹🔸🔸

वत्स ऋषि के नौ पुत्र माने जाते हैं जो इन नौ गांवों में निवास करते थे| (१) गाना (२) पयासी (३) हरियैया (४) नगहरा (५) अघइला (६) सेखुई (७) पीडहरा (८) राढ़ी (९) मकहडा बताया जाता है की इनके वहा पांति का प्रचलन था अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है।

कौशिक गोत्र (मिश्र-वंश): 🔸🔸🔹🔸🔹🔸🔸

तीन गांवों से इनकी उत्पत्ति बताई जाती है जो निम्न है।(१) धर्मपुरा (२) सोगावरी (३) देशी

वशिष्ठ गोत्र (मिश्र-वंश): 🔸🔸🔹🔹🔸🔸

इनका निवास भी इन तीन गांवों में बताई जाती है। (१) बट्टूपुर मार्जनी (२) बढ़निया (३) खउसी

शांडिल्य गोत्र ( तिवारी,त्रिपाठी वंश)🔸🔸🔹🔸🔸

शांडिल्य ऋषि के बारह पुत्र बताये जाते हैं जो इन बाह गांवों से प्रभुत्व रखते हैं। (१) सांडी (२) सोहगौरा (३) संरयाँ (४) श्रीजन (५) धतूरा (६) भगराइच (७) बलूआ (८) हरदी (९) झूडीयाँ (१०) उनवलियाँ (११) लोनापार (१२) कटियारी, लोनापार में लोनाखार, कानापार, छपरा भी समाहित है। इन्ही बारह गांवों से आज चारों तरफ इनका विकास हुआ है, यें सरयूपारीण ब्राह्मण हैं। इनका गोत्र श्री मुख शांडिल्य त्रि प्रवर है, श्री मुख शांडिल्य में घरानों का प्रचलन है जिसमे राम घराना, कृष्ण घराना, नाथ घराना, मणी घराना है, इन चारों का उदय, सोहगौरा गोरखपुर से है जहाँ आज भी इन चारों का अस्तित्व कायम है।

उप शांडिल्य ( तिवारी- त्रिपाठी, वंश):🔸🔸🔸🔸

इनके छ: गाँव बताये जाते हैं जी निम्नवत हैं। (१) शीशवाँ (२) चौरीहाँ (३) चनरवटा (४) जोजिया (५) ढकरा (६) क़जरवटा भार्गव गोत्र (तिवारी या त्रिपाठी वंश): भार्गव ऋषि के चार पुत्र बताये जाते हैं जिसमें चार गांवों का उल्लेख मिलता है| (१) सिंघनजोड़ी (२) सोताचक (३) चेतियाँ (४) मदनपुर।

भारद्वाज गोत्र (दुबे वंश): 🔸🔸🔸🔹🔸🔸

भारद्वाज ऋषि के चार पुत्र बाये जाते हैं जिनकी उत्पत्ति इन चार गांवों से बताई जाती है| (१) बड़गईयाँ (२) सरार (३) परहूँआ (४) गरयापार कन्चनियाँ और लाठीयारी इन दो गांवों में दुबे घराना बताया जाता है जो वास्तव में गौतम मिश्र हैं लेकिन इनके पिता क्रमश: उठातमनी और शंखमनी गौतम मिश्र थे परन्तु वासी (बस्ती) के राजा बोधमल ने एक पोखरा खुदवाया जिसमे लट्ठा न चल पाया, राजा के कहने पर दोनों भाई मिल कर लट्ठे को चलाया जिसमे एक ने लट्ठे सोने वाला भाग पकड़ा तो दुसरें ने लाठी वाला भाग पकड़ा जिसमे कन्चनियाँ व लाठियारी का नाम पड़ा, दुबे की गादी होने से ये लोग दुबे कहलाने लगें। सरार के दुबे के वहां पांति का प्रचलन रहा है अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है।

सावरण गोत्र ( पाण्डेय वंश) 🔹🔸🔸🔹🔸🔸

सावरण ऋषि के तीन पुत्र बताये जाते हैं इनके वहां भी पांति का प्रचलन रहा है जिन्हें तीन के समकक्ष माना जाता है जिनके तीन गाँव निम्न हैं| (१) इन्द्रपुर (२) दिलीपपुर (३) रकहट (चमरूपट्टी)

सांकेत गोत्र (मलांव के पाण्डेय वंश) 🔸🔸🔹🔸🔸

सांकेत ऋषि के तीन पुत्र इन तीन गांवों से सम्बन्धित बाते जाते हैं।(१) मलांव (२) नचइयाँ (३) चकसनियाँकश्यप गोत्र (त्रिफला के पाण्डेय वंश)इन तीन गांवों से बताये जाते हैं|(१) त्रिफला (२) मढ़रियाँ  (३) ढडमढीयाँ ओझा वंश इन तीन गांवों से बताये जाते हैं|(१) करइली (२) खैरी (३) निपनियां चौबे -चतुर्वेदी, वंश (कश्यप गोत्र)इनके लिए तीन गांवों का उल्लेख मिलता है|(१) वंदनडीह (२) बलूआ (३) बेलउजां एक गाँव कुसहाँ का उल्लेख बताते है जो शायद उपाध्याय वंश का मालूम पड़ता है| नोट:- खास कर लड़कियों की शादी- ब्याह में तीन तेरह का बोध किया और कराया जाता है|  पूर्वजों द्वारा लड़कियों की शादीयाँ गर्ग, गौतम, और श्री मुख शांडिल्य गोत्र में अपने गाँव को छोड़ कर की जाती रहीं हैं|  इटार के पाण्डेय व सरार के दुबे के वहां भी यही क्रम रहा है इन पाँचों में लड़कियों की शादी का आदान-प्रदान होता रहा है, इतर गोत्रो में लड़को की शादियाँ होती रहीं हैं|  आज- कल यह अपवाद साबित होने लग पड़ा है| ये सारे गाँव जो बताये गये हैं वें गोरखपुर, देवरियां, बस्ती जनपद में खास कर पाए जातें हैं या तो आस-पास के जिले भी हों सकतें हैं, यें सब लोग सरयूपारिण, कूलीन ब्राह्मण की श्रेणी में आते हैं| (१)  कालीडीहा (२) बहुडीह (३) वालेडीहा (४) भभयां (५) पतनाड़े  (६) कपीसाइन गांवों से उप गौतम की उत्पत्ति  मानी जाती है|वत्स गोत्र  ( मिश्र- वंश)वत्स ऋषि के नौ पुत्र माने जाते हैं जो इन नौ गांवों में निवास करते थे|(१) गाना (२) पयासी (३) हरियैया (४) नगहरा (५) अघइला (६) सेखुई (७) पीडहरा (८) राढ़ी (९) मकहडाबताया जाता है की इनके वहा पांति का प्रचलन था अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है|

Vats Gotra Detailed Information.

*********वत्स/वात्स्यायन वंश :*********

वत्स गोत्र या वंश के प्रवर्तक भृगुवंशी वत्स ऋषि थे। भारत के प्राचीनकालीन 16 जनपदों में से एक जनपद का नाम वत्स था। वत्स साम्राज्य गंगा-यमुना के संगम पर इलाहाबाद से दक्षिण-पश्चिम दिशा में बसा था जिसकी राजधानी कौशाम्बी थी। पाली भाषा में वत्स को 'वंश' और तत्सामयिक अर्धमगधी भाषा में 'वच्छ' कहा जाता था। चतुर्भुज चौहान वंशी भी वत्स वंश से हैं। वत्स वंश अग्निवंश से भी संबंध रखता है। एक कथा के अनुसार महर्षि च्यवन और महाराज शर्यातपुत्री सुकन्या के पुत्र राजकुमार दधीचि की 2 पत्नियां सरस्वती और अक्षमाला थीं। सरस्वती के पुत्र का नाम सारस्वत पड़ा और अक्षमाला के पुत्र का नाम पड़ा वत्स। युगोपरांत कलयुग आने पर वत्स वंश संभूत ऋषियों ने 'वात्स्यायन' उपाधि भी रखी। कालक्रमेण कलयुग के आने पर वत्स कुल में कुबेर नामक तपस्वी विद्वान पैदा हुए। कुबेर के 4 पुत्र- अच्युत, ईशान, हर और पाशुपत हुए। पाशुपत को एक पुत्र अर्थपति हुए। अर्थपति के एकादश पुत्र भृगु, हंस, शुचि आदि हुए जिनमें अष्टम थे चित्रभानु। चित्रभानु के वाण हुए। यही वाण बाद में वाणभट्ट कहलाए। भृगु के च्यवन, च्यवन के आपन्वान, आपन्वान के ओर्व, ओर्व के ऋचीक, ऋचिक के जमदग्नि हुए। इसी वंश में आगे चलकर ऋषि वत्स हुए। इन्होंने अपना खुद का वंश चलाया इसलिए इनके कुल के लोग वत्स गोत्र रखते हैं। वत्स गोत्र में कई उपाधियां थीं यथा- बालिगा, भागवत, भैरव, भट्ट, दाबोलकर, गांगल, गार्गेकर, घाग्रेकर, घाटे, गोरे, गोवित्रीकर, हरे, हीरे, होले, जोशी, काकेत्कर, काले, मल्शे, मल्ल्या, महालक्ष्मी, नागेश, सखदेव, शिनॉय, सोहोनी, सोवानी, सुग्वेलकर, गादे, रामनाथ, शंथेरी, कामाक्षी आदि।
शिवा कान्त "वत्स "
Fb.com/ShivaKant.Vats

कौशिक गोत्र  (मिश्र-वंश)************

 तीन गांवों से इनकी उत्पत्ति बताई जाती है जो निम्न है|(१) धर्मपुरा (२) सोगावरी (३) देशीवशिष्ठ गोत्र (मिश्र-वंश)इनका निवास भी इन तीन गांवों में बताई जाती है|(१) बट्टूपुर  मार्जनी (२) बढ़निया (३) खउसीशांडिल्य गोत्र ( तिवारी,त्रिपाठी -वंश) शांडिल्य ऋषि के बारह पुत्र बताये जाते हैं जो इन बारह गांवों से प्रभुत्व रखते हैं|(१) पिंडी (२) सोहगौरा (३) संरयाँ  (४) श्रीजन (५) धतूरा (६) भगराइच (७) बलूआ (८) हरदी (९) झूडीयाँ (१०) उनवलियाँ (११) लोनापार (१२) कटियारी, लोनापार में लोनाखार, कानापार, छपरा भी समाहित हैइन्ही बारह गांवों से आज चारों तरफ इनका विकास हुआ है, यें सरयूपारीण ब्राह्मण हैं|इनका गोत्र श्री मुख शांडिल्य- त्रि -प्रवर है, श्री मुख शांडिल्य में घरानों का प्रचलन है जिसमे  राम घराना, कृष्ण घराना, नाथ घराना, मणी घराना है, इन चारों का उदय, सोहगौरा- गोरखपुर से है जहाँ आज भी इन चारों का अस्तित्व कायम है| उप शांडिल्य ( तिवारी- त्रिपाठी, वंश)इनके छ: गाँव बताये जाते हैं जी निम्नवत हैं|(१) शीशवाँ (२) चौरीहाँ (३) चनरवटा (४) जोजिया (५) ढकरा (६) क़जरवटा।। जय श्रीराम ।।

आत्मीय मित्रों, 


             मै शिवा कान्त "वत्स"  पेशे से अधिवक्ता व व्यापार परामर्शदाता हूँ । मै “वत्स “ गोत्रीय बह्ममण हूँ  इसलिए प्रारम्भ से ही " पाण्डेय " उपनाम के स्थान पर "वत्स" लिखता हूँ । वत्स समुदाय पर कुछ जानकारी आगे संकलित है। जो साभार सन्दर्भित है।

           वत्स गोत्र – उद्भव एवं विकास का इतिहास

            ********  पौराणिक पृष्भूमि********

“भ्रिगुं, पुलत्स्यं, पुलहं, क्रतुअंगिरिसं तथामरीचिं,

दक्षमत्रिंच, वशिष्ठं चैव मानसान्” (विष्णु पुराण 5/7)

भ्रिगु, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि तथा वशिष्ठ –

इन नौ मानस पुत्रों को व्रह्मा ने प्रजा उत्पत्ति का कार्य भार सौंपा| कालान्तर में इनकी संख्या बढ़कर 26 तक हो गई और इसके बाद इनकी संख्या 56 हो गई| इन्हीं ऋषियों के नाम से गोत्र का प्रचलन हुआ और इनके वंशज अपने गोत्र ऋषि से संबद्ध हो गए|हरेक गोत्र में प्रवर, गण और उनके वंशज(व्राह्मण) हुए| कुछ गोत्रों में सुयोग्य गोत्रानुयायी ऋषियों को भी गोत्र वर्धन का अधिकार दिया गया |

नौ मानस पुत्रों में सर्वश्रेष्ठ भृगु ऋषि गोत्रोत्पन्न वत्स ऋषि को अपने गोत्र नाम से प्रजा वर्धन का अधिकार प्राप्त हुआ|

इनके मूल ऋषि भृगु रहे| इनके पांच प्रवर – भार्गव, च्यवन, आप्रवान, और्व और जमदग्नि हुए |

एक कथा के अनुसार महर्षि च्यवन और महाराज शर्यात पुत्री सुकन्या के पुत्र राजकुमार दधीचि की 2 पत्नियां सरस्वती और अक्षमाला थीं। सरस्वती के पुत्र का नाम सारस्वत पड़ा और अक्षमाला के पुत्र का नाम पड़ा वत्स

युगोपरांत कलयुग आने पर वत्स वंश संभूत ऋषियों ने 'वात्स्यायन' उपाधि भी रखी।

कालक्रमेण कलयुग के आने पर वत्स कुल में कुबेर नामक तपस्वी विद्वान पैदा हुए।

कुबेर के 4 पुत्र- अच्युत, ईशान, हर और पाशुपत हुए

पाशुपत को एक पुत्र अर्थपति हुए। अर्थपति के एकादश पुत्र भृगु, हंस, शुचि आदि हुए जिनमें अष्टम थे चित्रभानु

चित्रभानु के वाण हुए। यही वाण बाद में वाणभट्ट कहलाए।

भृगु के च्यवन, च्यवन के आपन्वान, आपन्वान के ओर्व, ओर्व के ऋचीक, ऋचिक के जमदग्नि हुए।

इसी वंश में आगे चलकर ऋषि वत्स हुए। इन्होंने अपना खुद का वंश चलाया इसलिए इनके कुल के लोग वत्स गोत्र रखते हैं।

मूल ऋषि होने के कारण भृगु ही इनके गण हुए|

इनके वंशज(ब्राह्मण) शोनभद्र,(सोनभदरिया), बछ्गोतिया, बगौछिया, दोनवार, जलेवार, शमसेरिया, हथौरिया, गाणमिश्र, गगटिकैत और दनिसवार आदि ब्राह्मण हुए

************* लिखित साक्ष्य ***********

छठी शदी ईशा पूर्व महाकवि वाणभट्ट रचित ‘हर्षचरितम्’ के प्रारंभ में महाकवि ने वत्स गोत्र का पौराणिक इतिहास साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया है|

महाकवि वाणभट्ट के बारे में क्या कहना – “वाणोच्छिष्टम् जगत सर्वम्”| ‘

वाण का छोड़ा हुआ जूठन ही समस्त जगत का साहित्य है’|

इस प्रचलित उक्ति से ही वाणभट्ट की विद्वता का पता चल जाता है| वाणभट्ट स्वयं वत्स गोत्रीय थे|

वाणभट्ट के अनुसार एक बार स्वर्ग की देव सभा में दुर्वासा ऋषि उपमन्यु ऋषि के साथ विवाद करते-करते क्रोधवश सामवेद गान करते हुए विस्वर गान (Out of Tune) गाने लगे| इसपर सरस्वती देवी हँस पड़ी|

फिर क्या था; दुर्वासा ऋषि उनपर बरस पड़े और शाप दे डाला – ‘दुर्वुद्धे ! दुर्विद्ग्धे ! पापिनि ! जा, अपनी करनी का फल भोग, मर्त्यलोक में पतित होकर बस| स्वर्ग में तेरा स्थान नहीं|इतना सुनकर सरस्वती देवी विलाप करने लगी|

इसपर पितामह व्रह्मा ने दुर्वासा की बड़ी भर्त्सना की|

अनंतर अपनी मानसपुत्री सरस्वती पर द्रवीभूत होकर उससे कहा – ‘जा बेटी’ ! मर्त्यलोक में धैर्य धर कर जा, तेरी सखी सावित्री भी तेरे साथ वहाँ जायेगी| पुत्रमुख दर्शन तक ही तेरा यह शाप रहेगा, तदन्तर तू यहाँ वापस लौट आयेगी|

शाप वश सरस्वती मर्त्यलोक में हिरण्यवाह नदी के पश्चिमी किनारे पर स्वर्ग से जा उतरी| 

हिरण्यवाह को शोण नद भी कहते है जो आज कल सोन नदी के नाम से विख्यात हैं|

वहाँ की रमणीयता से मुग्ध हो वहीं पर्णकुटी बनाकर सावित्री के साथ रहने लगी|

इस प्रकार कुछ वर्ष व्यतीत हुए| एक दिन कोलाहल सुन दोनों ने कुटिया के बाहर आकर देखा|

हजार सैनिकों के साथ एक अश्वारोही युवक उधर से गुजर रहा था|

सरस्वती के सौंदर्य पर वह राजकुमार मुग्ध हो गया और यही हालत सरस्वती की भी थी|

वह राजकुमार और कोई नहीं, महर्षि च्यवन और महाराज शर्यात पुत्री सुकन्या का पुत्र राजकुमार दधीच थे |  

च्यवनाश्रम शोण नदी के पश्चिमी तट पर दो कोश दूर था| दोनों के निरंतर मिलन स्वरूप प्रेमाग्नि इतनी प्रवल हुई कि दोनों ने गांधर्व विवाह कर लिया और पति-पत्नी रूप जीवन-यापन करने लगे|

जब घनिष्ठता और बढ़ी तो सरस्वती ने अपना परिचय दिया|

सरस्वती एक वर्ष से ज्यादा दिन तक साथ रही| फलतः उसने एक पुत्र-रत्न जना| पुत्र मुख दर्शनोपरांत सरस्वती अपने पुत्र को सर्वगुण संपन्नता का वरदान देकर स्वर्ग वापस लौट गयी|

पत्नी वियोगाग्नि-दग्ध राजकुमार दधीचि ने वैराग्य धारण कर लिया|

अपने पुत्र को स्वभ्राता-पत्नि अक्षमाला को पालन पोषण के लिए सौंप कर युवावस्था में ही तपश्चर्या के लिए च्यवन कानन में प्रवेश कर गए|

अक्षमाला भी गर्भवती थी| उसे भी एक पुत्र हुआ|

सरस्वती के पुत्र का नाम सारस्वत पड़ा और अक्षमाला के पुत्र का नाम पड़ा “वत्स”|

अक्षमाला ने अपना दूध पिलाकर दोनों बालकों का पुत्रवत पालन पोषण किया| एक ही माता के दुग्धपान से दोनों में सहोदर भ्रातृवत सम्बन्ध हो गया|

अपनी माता सरस्वती देवी के वरदान से सारस्वत सभी विद्याओं में निष्णात हो गए और इतनी क्षमता प्राप्त कर ली कि अपना पूरा ज्ञान, कौशल और सारी विद्याएँ अपने भाई वत्स के अंदर अंतर्निहित कर दी|

परिणामस्वरूप वत्स भी सरस्वती देवी प्रदत्त सारी विद्याओं में निष्णात हो गए| वत्स में सर्व विद्या अर्पण कर च्यावानाश्रम के पास ‘प्रीतिकूट’ नामक ग्राम में उन्हें बसाकर सारस्वत भी अपने पिता का अनुशरण कर च्यवन कानन में तपस्या करने चले गए| युगोपरांत कलियुग आने पर वत्स वंश संभूत ऋषियों ने ‘वात्स्यायन’ उपाधि भी रखी| वात्स्यायन ऋषि रचित ‘कामसूत्र’ जग प्रसिद्ध है| वत्स वंश में बड़े-बड़े धीर-विज्ञ गृहमुनि जन्मे जो असाधारण विद्वता से पूर्ण थे| ये किसी और ब्राह्मण की पंक्ति में बैठकर भोजन नहीं करते थे (विवर्जितः जनपंक्त्यः)|अपना भोजन स्वयं पकाते थे (स्वयं पाकी)| दान नहीं लेते थे, याचना नहीं करते थे (विधूताध्येषनाः)| स्पष्टवादी तथा निर्भीक शास्त्रीय व्यवस्था देने के अधिकारी थे|

कपट-कुटिलता, शेखी बघारना, छल-छद्म और डींग हांकने को वे निष्क्रिय पापाचार की श्रेणी में गिनते थे|

निःष्णात विद्वान, कवि, वाग्मी और नृत्यगीतवाद्य आदि सभी ललित कलाओं में निपुण थे|

कालक्रमेण कलियुग के आने पर वत्स-कुल में कुबेर नामक तपस्वी विद्वान पैदा हुए 

जिनकी चरण कमल वंदना तत्कालीन गुप्त वंशीय नृपगण करते नहीं अघाते थे :-

“बभूव वात्स्यायन वंश सम्भ्वोद्विजो जगद्गीतगुणोग्रणी सताम|

अनेक गुप्ताचित पादपंकजः कुबेरनामांश इवस्वयंबभूवः||”

(कादम्बरी)कुबेर के चार पुत्र – अच्युत, ईशान, हर और पाशुपत हुए|

पाशुपत को एक पुत्र अर्थपति हुए जो बड़े महात्मा और ब्राह्मणों में अग्रगण्य थे|

अर्थपति के एकादश पुत्र भृगु,हंस, शुचि आदि हुए जिनमे अष्टम थे चित्रभानु|

इसी भाग्यवान चित्रभानु ने राजदेवी नामधन्य अपनी ब्राह्मण धर्मपत्नी के गर्भ से पाया एक पुत्र रत्न जिसका नाम था वाण जिसने वात्स्यायन से बदलकर भट्ट उपाधि रखी और वाणभट्ट बन गए|

वाणभट्ट की युवावस्था उछ्रिंखलता, चपलता और इत्वरता (घुमक्कड़ी) से भरी थी|अंततः वर्षों बाद अपनी जन्मस्थली प्रीतिकूट ग्राम लौट आये| कालक्रम से महाराजा हर्षदेव से संपर्क में आने के बाद उन्होंने ‘हर्षचरित’ की रचना की|

****** वत्स/वात्स्यायन गोत्र का भौगोलिक स्थान *****

600 वर्ष ई.पू. जो पौराणिक भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण विभाजन रेखा है, में वत्स प्रदेश अतिमहत्वपूर्ण 16 महाजनपदों में से एक था जो नीचे दिये गए मानचित्र में अच्छी तरह प्रदर्शित है|वत्स साम्राज्य गंगा यमुना के संगम पर इलाहबाद से दक्षिण-पश्चिम दिशा में बसा था जिसकी राजधानी कौशाम्बी थी| पाली भाषा में वत्स को ‘वंश’ और तत्सामयिक अर्धमगधी भाषा में ‘वच्छ’ कहा जाता था| यह अर्धमगधी का ही प्रभाव है कि ‘वत्स गोत्रीय’ भूमिहार ब्राह्मण अनंतर में ‘वछगोतिया’ कहलाने लगे| छठी शताब्दी ई.पू. के सीमांकन के अनुसार वत्स जनपद के उत्तर में कोसल, दक्षिण में अवंती, पूरब में काशी और मगध, तथा पश्चिम में मत्स्य प्रदेश था|

******बिहार में वत्स गोत्र का इतिहास/स्थान *******

काल क्रम से वत्स गोत्र का केंद्रीकरण मगध प्रदेश में शोनभद्र के च्यवनाश्रम के चतुर्दिक हो गया

क्योंकि इसका प्रादुर्भाव च्यवन कुमार दधीच से जुड़ा हुआ था|

मगध प्रदेश में काशी के पूरब और उत्तर से पाटलीपुत्र पर्यंत अंग प्रदेश से पश्चिम तक वत्स गोत्रीय समाज का विस्तार था| सम्प्रति वत्स गोत्र उत्तर प्रदेश के शोनभद्र से लेकर गाजीपुर तक तथा  गया-औरंगाबाद में सोन नदी के किनारे से लेकर पटना, हजारीबाग, मुजफ्फरपुर-सीतामढ़ी-गोरखपुर तक फैला हुआ है|

#SONEBHADRA, UP-64 #ROBERTSGANJ Fb.com/ShivaKant.Vats

पुरातन कालीन ‘प्रीतिकूट’ ग्राम आज का ‘पीरू’ गांव सिद्ध हो चुका है, (माधुरी पत्रिका 1932 का अंक)

जो हिंदू समाज से उपेक्षित हो अपने दुर्भाग्य पर रो रहा है क्योंकि तत्कालीन प्रीतिकूट आज का ‘पीरू बनतारा’ है|

यह प्राचीन च्यवनाश्रम से पश्चिम करीब चार मील की दूरी पर स्थित है| इसके पास ही 6 मील पूरब बनतारा गांव अवस्थित है| कालक्रम से प्रीतिकूट ‘पीयरू’ और तदन्तर ‘पीरू’ बन गया|

च्यवनाश्रम के चतुर्दिक वात्स्यायन ब्राह्मण (वछ्गोतिया, सोनभदरिया) के गांव बहुसंख्यक रूप में पाए जाते हैं|

शोन तटवासी होने के कारण ये सोनभद्र/सोनभदरिया कहलाते हैं|

*******इस्लामीकरण का इतिहास********

मुस्लमान बादशाह खासकर हिंदुओं को जबरदस्ती इस्लाम धर्म अपनाने के लिए दो तरीके अपनाते थे|

एक किसी जुर्म की सजा के बदले और दूसरा जजिया टैक्स नहीं देने के का| जजिया का अर्थ फिरौती Extortion Money रंगदारी, हफ्ता या poll tax है जो गैर मुस्लिमों से उनकी सुरक्षा के बहाने से लिया जाता है|

यह प्रथा अभी भी पाकिस्तान में खासकर हिंदुओं के खिलाफ प्रचलित है| पिछले वर्ष अनेक हिंदुओं को इसलिए मार दिया गया क्योंकि वे अपनी गरीबी के कारण जजिया कर देने में असमर्थ थे|

जिन लोगों पर जजिया का नियम लागू होता है उनको जिम्मी “कहा जाता है| अर्थात सभी गैर मुस्लिम जिम्मी है जजिया की कोई दर निश्चित नहीं की गई थी ताकि मुसलमान मनमाना जजिया वसूल कर सकें|

प्रोफेट मुहम्मद ने जजिया टैक्स को कुरान में भी लिखवा दिया ताकि मुस्लमान बादशाह इसे धार्मिक मान्यता के अधीन वसूल कर सके|बादशाहों ने इस टैक्स से अपना घर भरना, और नहीं देने पर लोगों को मुसलमान बनने पर मजबूर करना शुरू कर दिया|मुहम्मद की मौत के बाद भी मुस्लिम बादशाहों ने यही नीति अपनाई|

जजिया के धन से गैर मुसलमानों को सुरक्षा प्रदान करना मकसद था लेकिन मुसलमान बदशाह उस धन को अपने निजी कामों, जैसे अपनी शादियों, हथियार खरीदने, और दावतें करने और ऐश मौज करने में खर्च किया करता था|

बीमार, गरीब, और स्त्रियों को भी नहीं छोड़ते थे और जो जजिया नहीं दे सकता था उसकी औरतें उठा लेते थे| यहांतक क़त्ल भी कर देते थे| जजिया तो एक बहाना था|मुहम्मद लोगों को इस्लाम कबूल करने पर मजबूर करना चाहता था जैसा मुसलमानों ने भारत में किया|

              औरंगजेब के शासनकाल में पीरू बनतारा आदि गाँवों के वछ्गोतिया ब्राह्मण का 1700-1712 के बीच इस्लामीकरण इसी परिप्रेक्ष्य में हुआ|

पीरू के पठान एक समय बम्भई ग्रामवासियों के नजदीकी गोतिया माने जाते थे जिसका साक्ष्य आज भी किसी न किसी रूप में उपलब्ध है|

बम्भई और पीरू के बीच तो भाईचारा (भयियारो) अभी तक चल रहा है|

विवाह में शाकद्वीपीय ब्राह्मण पुरोहित भी आशीर्वाद देने और दक्षिणा लेने जाते हैं और उन्हें वार्षिक वृति भी मिलती है और विवाह में पांच सैकड़ा नेग भी|

            औरंगजेब की मृत्यु (1707) तक और बहादुर शाह के जजिया टैक्स देने के फरमान पर केयालगढ़पति ज़मींदार वछ्गोतिया/सोनभदरिया भूमिहार ब्राह्मण अड़ गए|

यह समझा जा सकता हैं कि जजिया कर नहीं देने का निश्चय कितना साहसी और खतरनाक निर्णय था|

यह सरकार के खिलाफ बगावत थी जो इने-गिने जान जोखिम में डालने वाले लोग ही कर सकते थे| इस बगावत के चलते केयालगढ़ को ध्वस्त कर दिया गया और बागियों को पिघलते लाह में साटकर मार दिया गया|

जबरन लोगों को मुसलमान बनाना शुरू कर दिया गया| केयालगढ़ी पूर्वज कमलनयन सिंह ने बाकी परिवार को धर्म परिवर्तन से बचाने के लिए एक योजना बनाई| उन्होंने निश्चय किया कि वे धर्म परिवर्तन कर लेंगे और अपनी जमींदारी परिवार के लोगों में बाँट देंगे ताकि वे हिंदू बने रहें|

इस योजनानुसार अपने भाई के साथ दिल्ली गए और धर्म बदलकर एक भाई मुस्लिम शाहजादी से शादी कर दिल्ली में ही रह गए| कमलनयन सिंह उर्फ अबुल नसीर खान धर्म परिवर्तन के बाद वापस लौट जमींदारी बाकी परिवार में बांटकर डिहरी गांव अपनी बहन को खोइंछा में देकर जिंदगीभर बम्भई में ही रहे|

उनके चचेरे भाईओं नें उन्हें जिंदगी भर अपने साथ ही रखा| वहाँ एक कुआँ भी बनवाया| उनकी कब्र बाबू राम कृष्ण सिंह के हाते में अभी भी दृष्टिगोचर होती है जहां कृतज्ञतावश सब वछ्गोतिया परिवार अभी भी पूजते हैं|

उनके दो लड़के हुए – नजाकत चौधरी और मुबारक चौधरी| उनलोगों को धोबनी मौजा मिला|

लेकिन बेलहरा के जमींदार ब्राह्मण यशवंत सिंह के बहुत उपद्रव करने पर उनके चचेरे भाईओं ने कहा कि तब आप पुरानी डीह प्रीतपुर में जो चिरागी महल है, जाकर बस जाईये| नजाकत चौधरी प्रीतपुर में पुराने गढ़ पर और मुबारक चौधरी बनतारा में जा बसे|

वहाँ उनके स्मारक की पूजा लोग अभी तक करते हैं| जब लोग अमझर के पीर को पूजने लगे तब प्रीतपुर का नाम बदलकर ‘कमलनयन-अबुलनसीरपुर पीरु’ रख दिया गया| खतियान में अभी भी यही चला आ रहा है| धीरे-धीरे लोग प्रीतपुर नाम को भूलते गए और पीरू का नाम प्रचलित हो गया| चूंकि पीरू और बनतारा दोनों में में एक ही बाप के दो बेटों की औलादें बस रही हैं इसलिए दोनों गांवों को एक ही साथ बोलते हैं ‘पीरू बनतारा'|

वत्स गोत्रीय/वात्स्यायनों के मुख्य दो ही गढ़ थे – केयालगढ़ और नोनारगढ़ कारण पता नहीं लेकिन नोनारगढ़ी सोनभदरिया/बछ्गोतिया ब्राह्मण अपने को केयालगढ़ी से श्रेष्ठ मानते हैं| ये दोनों गढ़ भी आजकल ध्वंसावशेष रूप में च्यवनाश्रम (देकुड़/देवकुंड/देवकुल)के आस-पास ही दो तीन कोस की दूरी पर हैं|

सोनभदरिया वत्स गोत्रीय लोगों के पूर्वजों के ही दो-दो देवमंदिर – देव का सूर्यमंदिर और देवकुल का शिवमंदिर देश में विख्यात हैं| देव के मंदिर के सरदार पंडा अभी तक सोनभदरिया/बछ्गोतिया ही होते चले आ रहे हैं|

शोनभद्र नदी के किनारे बसे रहने वाले वत्स गोत्रीय भूमिहार शोनभद्र (सोनभदरिया) कहलाये और अर्धमगधी भाषा भासी वत्सगोत्रीय बछगोतिया बगौछिया, दोनवार, जलेवार, शमसेरिया, हथौरिया, गाणमिश्र, गगटिकैत और दनिसवार आदि

भूमिहार ब्राह्मण कहलाये लेकिन दोनों का मूल उद्गम स्थल केयालगढ़ या नोनारगढ़ ही था|

**********वत्स प्रतिज्ञा *************

जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, वत्स अपने वादे और वचनबद्धता के लिए विख्यात थे|

अपनी वचनबद्धता कायम रहे इसके लिए सुविख्यात वत्स सम्राट ‘आदर्श द्वितीय’ ने “वत्स-प्रतिज्ञा” कि प्रथा आरंभ की थी| यह एक शपथ के रूप में ली जाती थी| वत्स महाजनपद के ह्रास के साथ ही वत्स प्रतिज्ञा संस्कृति का भी ह्रास हो गया|

आदित्य तृतीय की पहली लिखित प्रतिज्ञा निम्नलिखित है:-

“आर्य जातीय वत्स गोत्रोत्पन्न मै ‘आदित्य त्रितीय’ 206 वीं शपथ लेता हूँ कि मैं अपनी मृत्यु तक प्रजा की रक्षा तबतक करूँगा जबतक मेरे कुल-गोत्र की सुरक्षा प्रभावित न हो”|

यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि वत्स गोत्र में अपने कुल-गोत्र की रक्षा की भावना सर्वोपरी थी|

अन्य प्रान्तों में वत्स गोत्रीय समुदायों की उपाधियाँ• बालिगा • भागवत• भैरव• भट्ट • दाबोलकर• गांगल• गार्गेकर• घाग्रेकर• घाटे • गोरे • गोवित्रिकर • हरे • हीरे • होले • जोशी • काकेत्कर • काले • मल्शे • मल्ल्या• महालक्ष्मी • नागेश • सखदेव• शिनॉय • सोहोनी • सोवानी • सुग्वेलकर • गादे • रामनाथ • शंथेरी• कामाक्षी

600वीं शदी ई.पू. के सोलह महाजनपद हालाँकि 600वीं शदी ई.पू. के जनपदों की संख्या अठारह थी परन्तु महाजनपदों में निम्नलिखित सोलह की ही गणना होती थी (चेति और सूरसेन महाजनपद की श्रेणी में नहीं थे) :-

1. अंग 2. कौशल 3. मल्ल 4. काशी 5. वत्स 

6. मगध 7. विज्जी 8. विदेह 9. कुरु 10. पांचाल 

11. मत्स्य 12. अस्मक 13. अवंती 14. कुंतल 

15. गांधार 16. कम्बोज

*********अन्य जातियों में वत्स गोत्र*******

हालांकि ब्राह्मणों (भूमिहार ब्राह्मण सम्मिलित) के अलावा अन्य जातियों में गोत्र प्रथा अनिवार्य नहीं है

फिर भी कतिपय प्रमुख जातियों में गोत्र परंपरा देखी जाती है इनके गोत्र, 'गोत्र-ऋषि उत्पन्न' नहीं वल्कि गोत्र-आश्रम आधारित हैं अर्थात जिस ऋषि आश्रम में वे संलग्न रहे उन्होंने उसी ऋषि-गोत्र को अपना लिया|

इसी सिद्धांत पर कुछ क्षत्रिय परिवारों में वत्स गोत्र पाया जाता है| यही सिद्धांत अन्य कुछ जातियों में भी प्रचलित है|

इस तरह वत्स गोत्र अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं फलित हो दिन-दूनी और रात-चौगुनी विकास पथ पर अग्रसर होता चला जा रहा है|

अपने गौरवशाली अतीत को स्मरण करते हुए प्रत्येक व्यक्ति विश्व कल्याणकारी अनमोल वैदिक सनातन ऋषि -संस्कृति एवं सर्वतो महती, परम पवित्र, युग सापेक्ष, युग अनुकूल, ऋषि परंपरा की पुनः प्रतिष्ठापना वर्तमान समय में अथक एवं अखंड रहे,


*****कृष्णा अवतार पूर्णावतार!*******
आत्मीय बंधुओ,
                      कृष्ण को पूर्णावतार कहा गया है। कृष्ण के जीवन में वह सबकुछ है जिसकी मानव को आवश्यकता होती है। कृष्ण गुरु हैं, तो शिष्य भी। आदर्श पति हैं तो प्रेमी भी। आदर्श मित्र हैं, तो शत्रु भी। वे आदर्श पुत्र हैं, तो पिता भी

युद्ध में कुशल हैं तो बुद्ध भी।

कृष्ण के जीवन में हर वह रंग है, जो धरती पर पाए जाते हैं इसीलिए तो उन्हें पूर्णावतार कहा गया है।

आठ का अंक : - कृष्ण के जीवन में आठ अंक का अजब संयोग है। उनका जन्म आठवें मनु के काल में अष्टमी के दिन वसुदेव के आठवें पुत्र के रूप में जन्म हुआ था। उनकी आठ सखियां, आठ पत्नियां, आठमित्र और आठ शत्रु थे। इस तरह उनके जीवन में आठ अंक का बहुत संयोग है।*

कृष्ण के नाम : -  नंदलाल, गोपाल, बांके बिहारी, कन्हैया, केशव, श्याम, रणछोड़दास, द्वारिकाधीश और वासुदेव।

बाकी बाद में भक्तों ने रखे जैसे ‍मुरलीधर, माधव, गिरधारी, घनश्याम, माखनचोर, मुरारी, मनोहर, हरि, रासबिहारी आदि।कृष्ण के माता-पिता : -  कृष्ण की माता का नाम देवकी और पिता का नाम वसुदेव था। उनको जिन्होंने पाला था उनका नाम यशोदा और धर्मपिता का नाम नंद था। बलराम की माता रोहिणी ने भी उन्हें माता के समान दुलार दिया। रोहिणी वसुदेव की प‍त्नी थीं।

कृष्ण के गुरु : -  गुरु संदीपनि ने कृष्ण को वेद शास्त्रों सहित 14 विद्या और 64 कलाओं का ज्ञान दिया था। गुरु घोरंगिरस ने सांगोपांग ब्रह्म ‍ज्ञान की शिक्षा दी थी। माना यह भी जाता है कि श्रीकृष्ण अपने चचेरे भाई और जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ के प्रवचन सुना करते थे।

कृष्ण के भाई : - कृष्ण के भाइयों में नेमिनाथ, बलराम और गद थे। शौरपुरी (मथुरा) के यादववंशी राजा अंधकवृष्णी के ज्येष्ठ पुत्र समुद्रविजय के पुत्र थे नेमिनाथ। अंधकवृष्णी के सबसे छोटे पुत्र वसुदेव से उत्पन्न हुए भगवान श्रीकृष्ण। इस प्रकार नेमिनाथ और श्रीकृष्ण दोनों चचेरे भाई थे। इसके बाद बलराम और गद भी कृष्ण के भाई थे।

कृष्ण की बहनें,कृष्ण की 3 बहनें थी .

1. एकानंगा (यह यशोदा की पुत्री थीं)।

2. सुभद्रा : वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी से बलराम और सुभद्र का जन्म हुआ। वसुदेव देवकी के साथ जिस समय कारागृह में बंदी थे, उस समय ये नंद के यहां रहती थीं।  सुभद्रा का विवाह कृष्ण ने अपनी बुआ कुंती के पुत्र अर्जुन से किया था। जबकि बलराम दुर्योधन से करना चाहते थे।

3. द्रौपदी : पांडवों की पत्नी द्रौपदी हालांकि कृष्ण की बहन नहीं थी, लेकिन श्रीकृष्‍ण इसे अपनी मानस ‍भगिनी मानते थे।

4.देवकी के गर्भ से सती ने महामाया के रूप में इनके घर जन्म लिया, जो कंस के पटकने पर हाथ से छूट गई थी। कहते हैं, विन्ध्याचल में इसी देवी का निवास है। यह भी कृष्ण की बहन थीं।

कृष्ण की पत्नियां : - रुक्मिणी, जाम्बवंती, सत्यभामा, मित्रवंदा, सत्या, लक्ष्मणा, भद्रा और कालिंदी।*

कृष्ण के पुत्र : - रुक्मणी से प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, जम्बवंती से साम्ब, मित्रवंदा से वृक, सत्या से वीर, सत्यभामा से भानु, लक्ष्मणा से…, भद्रा से… और कालिंदी से…।*

कृष्ण की पुत्रियां : - रुक्मणी से कृष्ण की एक पुत्री थीं जिसका नाम चारू था।*

कृष्ण के पौत्र : - प्रद्युम्न से अनिरुद्ध। अनिरुद्ध का विवाह वाणासुर की पुत्री उषा के साथ हुआ था।*

कृष्ण की 8 सखियां : - राधा, ललिता आदि सहित कृष्ण की 8 सखियां थीं। सखियों के नाम निम्न हैं-ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार इनके नाम इस तरह हैं- चन्द्रावली, श्यामा, शैव्या, पद्या, राधा, ललिता, विशाखा तथा भद्रा। कुछ जगह ये नाम इस प्रकार हैं- चित्रा, सुदेवी, ललिता, विशाखा, चम्पकलता, तुंगविद्या, इन्दुलेखा, रग्डदेवी और सुदेवी।

इसके अलावा भौमासुर से मुक्त कराई गई सभी महिलाएं कृष्ण की सखियां थीं। कुछ जगह पर- ललिता, विशाखा, चम्पकलता, चित्रादेवी, तुङ्गविद्या, इन्दुलेखा, रंगदेवी और कृत्रिमा (मनेली)। इनमें से कुछ नामों में अंतर है।

कृष्ण के 8 मित्र : - श्रीदामा, सुदामा, सुबल, स्तोक कृष्ण, अर्जुन, वृषबन्धु, मन:सौख्य, सुभग, बली और प्राणभानु। 

इनमें से आठ उनके साथ मित्र थे। ये नाम आदिपुराण में मिलते हैं। हालांकि इसके अलावा भी कृष्ण के हजारों मित्र थे जिसनें दुर्योधन का नाम भी लिया जाता है।*

कृष्ण के शत्रु : - कंस, जरासंध, शिशुपाल, कालयवन, पौंड्रक। कंस तो मामा था। कंस का श्वसुर जरासंध था। शिशुपाल कृष्ण की बुआ का लड़का था। कालयवन यवन जाति का मलेच्छ जा था जो जरासंध का मित्र था। पौंड्रक काशी नरेश था जो खुद को विष्णु का अवतार मानता था।

कृष्ण के शिष्य : - कृष्ण ने किया जिनका वध : ताड़का, पूतना, चाणूड़, शकटासुर, कालिया, धेनुक, प्रलंब, अरिष्टासुर, बकासुर, तृणावर्त अघासुर, मुष्टिक, यमलार्जुन, द्विविद, केशी, व्योमासुर, कंस, प्रौंड्रक और नरकासुर आदि।

कृष्ण चिन्ह : -  सुदर्शन चक्र, मोर मुकुट, बंसी, पितांभर वस्त्र, पांचजन्य शंख, गाय, कमल का फूल और माखन मिश्री।*कृष्ण लोक :- वैकुंठ, गोलोक, विष्णु लोक।*

कृष्ण ग्रंथ : महाभारत और गीता

कृष्ण का कुल : - यदुकुल। कृष्ण के समय उनके कुल के कुल 18 कुल थे। अर्थात उनके कुल की कुल 18 शाखाएं थीं। यह अंधक-वृष्णियों का कुल था। वृष्णि होने के कारण ये वैष्णव कहलाए। अन्धक, वृष्णि, कुकर, दाशार्ह भोजक आदि यादवों की समस्त शाखाएं मथुरा में कुकरपुरी (घाटी ककोरन) नामक स्थान में यमुना के तट पर मथुरा के उग्रसेन महाराज के संरक्षण में निवास करती थीं।शाप के चलते सिर्फ यदु‍ओं का नाश होने के बाद अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण के पौत्र वज्रनाभ को द्वारिका से मथुरा लाकर उन्हें मथुरा जनपद का शासक बनाया गया। इसी समय परीक्षित भी हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठाए गए। वज्र के नाम पर बाद में यह संपूर्ण क्षेत्र ब्रज कहलाने लगा। जरासंध के वंशज सृतजय ने वज्रनाभ वंशज शतसेन से 2781 वि.पू. में मथुरा का राज्य छीन लिया था। बाद में मागधों के राजाओं की गद्दी प्रद्योत, शिशुनाग वंशधरों पर होती हुई नंद ओर मौर्यवंश पर आई। मथुराकेमथुर नंदगाव, वृंदावन, गोवर्धन, बरसाना, मधुवन और द्वारिका।

कृष्ण पर्व : - श्री कृष्ण ने ही होली और अन्नकूट महोत्सव की शुरुआत की थी। जन्माष्टमी के दिन उनका जन्मदिन मनाया जाता है।मथुरा मंडल के ये 41 स्थान कृष्ण से जुड़े हैं:-मधुवन, तालवन, कुमुदवन, शांतनु कुण्ड, सतोहा, बहुलावन, राधा-कृष्ण कुण्ड, गोवर्धन, काम्यक वन, संच्दर सरोवर, जतीपुरा, डीग का लक्ष्मण मंदिर, साक्षी गोपाल मंदिर, जल महल, कमोद वन, चरन पहाड़ी कुण्ड, काम्यवन, बरसाना, नंदगांव, जावट, कोकिलावन, कोसी, शेरगढ, चीर घाट, नौहझील, श्री भद्रवन, भांडीरवन, बेलवन, राया वन, गोपाल कुण्ड, कबीर कुण्ड, भोयी कुण्ड, ग्राम पडरारी के वनखंडी में शिव मंदिर, दाऊजी, महावन, ब्रह्मांड घाट, चिंताहरण महादेव, गोकुल, संकेत तीर्थ, लोहवन और वृन्दावन।

इसके बाद द्वारिका, तिरुपति बालाजी, श्रीनाथद्वारा और खाटू श्याम प्रमुख कृष्ण स्थान है।भक्तिकाल के कृष्ण भक्त: - सूरदास, ध्रुवदास, रसखान, व्यासजी, स्वामी हरिदास, मीराबाई, गदाधर भट्ट, हितहरिवंश, गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास, कुंभनदास, परमानंद, कृष्णदास, श्रीभट्ट, सूरदास मदनमोहन, नंददास, चैतन्य महाप्रभु आदि।

         कृष्णा जिनका नाम है गोकुल जिनका धाम है ऐसे श्री कृष्ण को मेरा बारम्बार प्रणाम है।

   
आगामी लेखो में हम  संस्मरण, अर्वाचीन बोधकथाएँ, विज्ञान व प्रौद्योगिकी, आकाशगंगा, भौतिक आयामों व समय यात्रा पर चर्चा करेंगे।व ईश्वर से इसके सतत उत्तरोत्तर उन्नति की कामना करते है |ईश्वर सद्बुधि दे और सदा सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे|

"असतो मा सद्गमय""तमसो मा ज्योतिर्गमय,""मृर्त्यो मा अमृतंर्गमयं ।।"


मुझे अच्छा लगेगा यदि हम कभी भी सिर्फ LIKE और COMMENTS से अधिक संवाद कर सके ?

हम प्रौद्योगिकी में इतने डूब गए हैं कि हमने सबसे महत्वपूर्ण बात भुला दी जो है "अच्छी दोस्ती"। धन्यवाद...

लेखक: श्री शिवा कान्त वत्स
( अधिवक्ता व व्यापार  परामर्शदाता  )

No comments:

Post a Comment