वैश्विक महामारी व भारतवर्ष 2020( भाग #3) इतिहास
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धीरे-धीरे भोली जनता है बलिहारी मजहब की,
ऐसा ना हो देश जला दे ये चिंगारी मजहब की।
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धीरे-धीरे भोली जनता है बलिहारी मजहब की,
ऐसा ना हो देश जला दे ये चिंगारी मजहब की।
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आत्मीय पाठकों,
पुस्तके ही वह माध्यम है जिससे आप लेख़क के विचारों मे गहन उतर कर सत्य तक पहुँच जाते है।
अपने खाली समय का सही इस्तेमाल इनमे करे ।
1) भाषा व व्याकरण को प्रभावी बनाना
2) व्यायाम व योग
3) नये कौशल व प्रौद्योगिकी का अध्ययन
4) साहित्य, संगीत, कला, छायाचित्रों मे उपयोग
5) अच्छी पुस्तको का अध्ययन व लेखन
6) आध्यात्म
7) अपनी रूचि के अनुसार भविष्य के कार्यो की सूची बनाये।
चलिए तनिक इतिहास के कुछ पन्ने पलटते हैं ।
सिक्खों के पहले गुरु - श्री गुरुनानक देव जी
2- गुरु अंगददेव जी
3- गुरु अमरदास जी
4- गुरु रामदास जी
5- गुरु अर्जुनदेव जी
6- गुरु हरगोविंद जी
7- गुरु हरराय जी
8 - गुरु हरकिशन जी
9- गुरु तेगबहादुर जी
10- गुरु गोविंद सिंह जी
चलिए तनिक इतिहास के कुछ पन्ने पलटते हैं ।
सिक्खों के पहले गुरु - श्री गुरुनानक देव जी
2- गुरु अंगददेव जी
3- गुरु अमरदास जी
4- गुरु रामदास जी
5- गुरु अर्जुनदेव जी
6- गुरु हरगोविंद जी
7- गुरु हरराय जी
8 - गुरु हरकिशन जी
9- गुरु तेगबहादुर जी
10- गुरु गोविंद सिंह जी
सभी गुरुओं के नाम में राम, अर्जुन, गोविंद (कृष्ण), हर(महादेव) हैं।
जब औरँगजेब ने कश्मीर के पंडितों को इस्लाम स्वीकार करने के लिए कहा तो कश्मीरी पंडितों ने गुरू तेगबहादुर जी के पास मदद के लिए गुहार लगाई तब गुरु तेगबहादुर जी ने कहा कि जाओ औरंगजेब से कहना यदि हमारे गुरु तेगबहादुर जी यदि मुसलमान बन गए तो हम भी मुसलमान बन जाएंगे ।ये बात पंडित औरंगजेब तक पहुंचा देते हैं , तब औरंगजेब गुरु तेगबहादुर जी को दिल्ली बुलाकर मुसलमान बनने के लिए दवाब डालता है लेकिन गुरु जी द्वारा अस्वीकार करने पर उन्हें यातना देकर मार दिया जाता है।
जब औरँगजेब ने कश्मीर के पंडितों को इस्लाम स्वीकार करने के लिए कहा तो कश्मीरी पंडितों ने गुरू तेगबहादुर जी के पास मदद के लिए गुहार लगाई तब गुरु तेगबहादुर जी ने कहा कि जाओ औरंगजेब से कहना यदि हमारे गुरु तेगबहादुर जी यदि मुसलमान बन गए तो हम भी मुसलमान बन जाएंगे ।ये बात पंडित औरंगजेब तक पहुंचा देते हैं , तब औरंगजेब गुरु तेगबहादुर जी को दिल्ली बुलाकर मुसलमान बनने के लिए दवाब डालता है लेकिन गुरु जी द्वारा अस्वीकार करने पर उन्हें यातना देकर मार दिया जाता है।
अब प्रश्न ये है कि यदि सिक्ख , हिन्दुओं से अलग हैं तो कश्मीरी पंडितों के लिए गुरु तेगबहादुर ने अपने प्राण न्यौछावर क्यों कर दिए ? गुरु गोविन्द सिंह का प्रिय शिष्य बंदा बहादुर (लक्ष्मण दास) भारद्वाज गोत्र का ब्राम्हण था जिसने गुरु गोविन्द सिंह जी के बाद पंजाब में मुगलों की सेना को नाकों चने चबवा दिए -कृष्णदत्त जैसे ब्राह्मण ने गुरु के सम्मान के लिए अपने सम्पूर्ण परिवार को कुर्बान कर दिया, राजा रणजीत सिंह कांगड़ा की ज्वालामुखी देवी के भक्त थे उन्होंने देवी मंदिर का पुर्ननिर्माण कराया ।
आज भी अनेक सिक्ख व्यापारियों की दुकानों में गणेश व देवी की मूर्तियां रहती हैं, आज भी सिक्ख नवरात्रि में अपने घरों में जोत जलाते हैं।
अब प्रश्न ये उठता है कि सिक्ख कब, क्यों व कैसे हिन्दुओं से अलग कर दिए गए ?
सन् 1857 की क्रांति से डरे ईसाई (अंग्रेज़) ने हिन्दू समाज को तोड़ने की साज़िश रची!
सन् 1875 में स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज का गठन किया, जिसका केंद्र तत्कालीन पंजाब का लाहौर था। स्वामी दयानंद ने ही सबसे पहले स्वराज्य की अवधारणा दी।
जब देश का नाम हिंदुस्तान तो ईसाईयों (अंग्रेज़) का राज क्यों! स्वामी दयानंद के इन विचारों से पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियों की बाढ़ आ गयी। लाला हरदयाल, लाला लाजपतराय, सोहन सिंह, भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह जैसे क्रांन्तिकारी नेता आर्य समाजी थे।
अतः ईसाई मिशनरियों(अंग्रेजो) ने अभियान चलाया कि सिक्ख व हिन्दू अलग हैं ताकि पंजाब में क्रांतिकारी आंदोलन को कमजोर किया जा सके। इसके लिए कुछ अंग्रेज़ समर्थक सिक्खों ने एक साजिश के तहत अभियान चलाया कि सिक्ख , हिन्दू नही हैं और अलग धर्म का दर्जा देने की मांग की (जैसे हाल ही में कर्नाटक के कुछ ईसाई बने लिंगायत समुदाय के लोगों ने हिन्दू धर्म से अलग करने की मांग उठाई थी) ईसाई मिशनरियों (अंग्रेज़ो) ने सन् 1922 में गुरुद्वारा एक्ट पारित कर सिक्खों को हिन्दूओं से अलग कर उन्हें अलग धर्म का घोषित कर दिया, और आजादी के बाद भी भारत के विखंडन के जिम्मेदार गुलाबी चचा ने इसे बनाये रखा, हिन्दू सिक्खों का खून एक है, हर हिन्दू को गुरूद्वारा जाना चाहिए,
आज भी अनेक सिक्ख व्यापारियों की दुकानों में गणेश व देवी की मूर्तियां रहती हैं, आज भी सिक्ख नवरात्रि में अपने घरों में जोत जलाते हैं।
अब प्रश्न ये उठता है कि सिक्ख कब, क्यों व कैसे हिन्दुओं से अलग कर दिए गए ?
सन् 1857 की क्रांति से डरे ईसाई (अंग्रेज़) ने हिन्दू समाज को तोड़ने की साज़िश रची!
सन् 1875 में स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज का गठन किया, जिसका केंद्र तत्कालीन पंजाब का लाहौर था। स्वामी दयानंद ने ही सबसे पहले स्वराज्य की अवधारणा दी।
जब देश का नाम हिंदुस्तान तो ईसाईयों (अंग्रेज़) का राज क्यों! स्वामी दयानंद के इन विचारों से पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियों की बाढ़ आ गयी। लाला हरदयाल, लाला लाजपतराय, सोहन सिंह, भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह जैसे क्रांन्तिकारी नेता आर्य समाजी थे।
अतः ईसाई मिशनरियों(अंग्रेजो) ने अभियान चलाया कि सिक्ख व हिन्दू अलग हैं ताकि पंजाब में क्रांतिकारी आंदोलन को कमजोर किया जा सके। इसके लिए कुछ अंग्रेज़ समर्थक सिक्खों ने एक साजिश के तहत अभियान चलाया कि सिक्ख , हिन्दू नही हैं और अलग धर्म का दर्जा देने की मांग की (जैसे हाल ही में कर्नाटक के कुछ ईसाई बने लिंगायत समुदाय के लोगों ने हिन्दू धर्म से अलग करने की मांग उठाई थी) ईसाई मिशनरियों (अंग्रेज़ो) ने सन् 1922 में गुरुद्वारा एक्ट पारित कर सिक्खों को हिन्दूओं से अलग कर उन्हें अलग धर्म का घोषित कर दिया, और आजादी के बाद भी भारत के विखंडन के जिम्मेदार गुलाबी चचा ने इसे बनाये रखा, हिन्दू सिक्खों का खून एक है, हर हिन्दू को गुरूद्वारा जाना चाहिए,
हर हिंदू को जीवन में एक बार अमृतसर के हरमंदिर साहिब अवश्य जाना चाहिए ।
गुरु गोविन्द सिंह ने सन् 1699 में खालसा (पवित्र) पंथ का गठन किया था और कहा था कि मैं चारों वर्ण के लोगों को सिंह बना दूँगा ।" देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा प्राण देकर ही नही, प्राण लेकर भी की जाती है" -
वामपंथियों की बाइबिल है "रूल्स फाॅर रेडिकल्स" जिसे सन् 1971 में साॅल अलिन्स्की ने लिखा था।
वैसे ये व्यक्ति काल मार्क्स के जैसा सिद्धांत वादी तो नही था लेकिन अपने सारे अनुभवों का प्रायोगिक सत्यापन पूरे विश्व की राजनीति में किया और अपने समय में पूरे विश्व की तत्कालीन राजनीति को प्रभावित किया जिसके संकेत आज भी नजर आते हैं। अलिन्स्की के कुल तेरह रूल्स हैं जो महज एक सिद्धांत नहीं हैं वो प्रायोजित और प्रायोगिक रूप से हमारे चारों ओर आज भी कन्हैया, व इन्हीं जैसों के रूप में विद्यमान हैं ।
(रूल 1) = शक्ति सिर्फ वह नहीं है जो आपके पास है । शक्ति वह भी है जो आपका शत्रु समझता है कि आपके पास है। आप देखो ये 2% वामपंथी जो कहीं भी चुनाव नहीं जीतते उनका प्रचार रब्बीस कुमार जैसे बड़े प्रचारक और नामी गिरामी हस्तियों के द्वारा प्रायोजित रूप से करा कर जनता को ये विश्वास दिलाते है कि उनका अस्तित्व बहुत तगडा है। पूरे समाज में प्रायोजित रूप से भ्रम फैलाया जाता है कि जनता का अपार समर्थन उनके साथ है।
( रूल 2 ) = कभी भी अपने Expertise के बाहर जाकर कुछ मत करो। आप देखो कन्हैया, आइसी येचुरी ये सभी एक सीमित मुद्दे पर ही बार बार बकैती करते हैं, इनका बकलोली करने का दायरा सीमित होता हैं । जैसे आज कल आजादी टर्म को ज्यादा फोकस किया जा रहा है ।
( रूल 3 ) = जब भी संभव हो अपने शत्रु को उसके Expertise की सीमा से बाहर लाओ। हमेशा चिंता, अनिश्चितता और असुरक्षा बनाये रखने के प्रयास करो। आप देखना वामपंथी हमेशा आपको खींच कर अपने मुद्दे पर ले जाएंगे । अगर आप उनके मुद्दे पर आ गए तो वही उनकी प्राथमिक जीत हो गई। मैं तो वामपंथियो को कुत्ते के ठीक नीचे और सूवर के ठीक उपर रखता हूँ, इसलिए इनके किसी भी सवाल का जबाब नहीं देता और आपलोग भी मत दो वहीं बेहतर होगा।
( रूल 4) =उपहास सबसे बड़ा हथियार है इसका कोई जबाब नहीं है, यह आपके विपक्षी को निहत्था कर देता है। व्यक्ति आलोचना का जबाब दे सकता है परंतु उपहास का नहीं । आप देख रहे होंगे हाल के दिनों में मोदी, अमित शाह योगी और अन्य के उपर उपहास वाले खूब सारे पोस्ट हेयर किया जा रहा है, उन्हें पता है की इसका कोई जबाब नहीं दे सकता।
(रूल 5) =विपक्षी को उसके अपने नियमों से चलने के लिए बाध्य करो। अगर कोई हर पत्र का उत्तर देना नियम मानता है तो उसे रोज 3000 पत्र लिखो ताकी वो अपना नियम खुद ही तोडे तब वामपंथी चिल्लाने लगेंगे देखो इसने पत्र का जबाब नही दिया। आप पाएंगे की वामी हमेशा अच्छे को अच्छा, सहिष्णु को और सहिष्णु होने को वाध्य करते हैं । हिंदू सहनशील है तो वे आपकी सहनशीलता को उस सीमा तक टेस्ट करेंगे, जब आपकी सहनशीलता समाप्त हो जाए और वो कुत्ते की तरह चिल्लाने लगे की असहिष्णुता कितनी बढ गई है।
मजदूर और कम्युनिष्ट - कुछ दिन हुए, एक स्कूल का मित्र मिला, AITUC व डाक्टर भीमराव अम्बेडकर से बहुत प्रभावित था, कम्युनिष्ट लोबी से जुड़ा था, नाम राधे-श्याम पर सनातन धर्म, वेद और महर्षि मनु, राम, श्याम को गाली दे रहा था, बोला धर्म से किसी को रोटी नही मिलती, धर्म अफीम के समान हैं । भारत के बुरे हालात का कारण केवल धर्म है हालांकि मेरे कितने भी तर्क से वह संतुष्ट नहीं हुआ ।
यदि भारत के टुकड़े करने का समर्थन चाहिए तो कम्युनिस्ट उपलब्ध हैं । यदि सन् 1962 में चीन युद्ध के समय सेना का सामान ले जाने वाली मजदूर यूनियन की हडताल करवानी हो तो कम्युनिष्ट उपलब्ध हैं। ताज़ा उदाहरण आनन्द विहार दिल्ली में मजदूरो से मानवता के प्रतिकूल परिस्थितियों मे पलायन हेतु प्रायोजित व गुमराह करने की नियत से अनुचित दबाव डालने की कोशिश कर की घटना है।
60 साल का लगातार शासन कम नहीं होता, रात दिन मजदूरों के अधिकारों की बात करने वाले कम्युनिष्ट मजदूरों को किस तरह बर्बाद कर रहे हैं। कोई कम्युनिष्ट मजदूरों को तम्बाकू, शराब व नशा छोड़ने के नहीं बोलता, मैंने किसी कम्यूनिष्ट साहित्य में एक शब्द नहीं देखा इसके बारे में, टीवी के किसी भी कार्यक्रम में ये लोग मजदूरों को नशा छोड़ने को नहीं कहते, सभी जानते हैं तम्बाकू से दमा, टी बी, फेफड़े का कैंसर, मुंह का कैंसर और अल्सर की सम्भावना कई गुणा बढ़ जाती है, जो मजदूर रोटी के लिए संकट में है वह कैंसर का इलाज कहाँ से करवाएगा, नशे की सूईंयों लगाकर आज मजदूर रोगों का शिकार हो रहा है, मजदूरों के लिए फैक्ट्री मालिक को गाली देने वाले क्या इन नशे के चक्र को तोड़ेंगे, शराब का कभी विरोध नहीं करते देखा, हाँ दूध देने वाली गाय के क़त्ल की वकालत जरुर करेंगे।
भारतीय बंगाल (West Bengal} के मजदूरों को देने के लिए रोजगार नहीं परन्तु करोड़ों बंगलादेशी मुस्लिम बुला लिए, ये वही बंगलादेशी हैं जिन्होंने सन् 1947 और 1971 में हिन्दूओं का और बिहारी मुसलमानों का कत्लेआम किया था, त्रिपूरा और बंगाल का GDP Per Capita बेहद कम है, हरियाणा जैसे राज्यों से आधे से भी कम, सीधे शब्दों में -कम GDP Per Capita कम रोजगार, कम शिक्षा कम स्वास्थ्य सुविधाएं।
अर्थशास्त्र के नोबल विजेता अमर्त्य सेन ने सिद्ध किया है कि बन्द या हड़ताल का सबसे अधिक असर मजदूरों पर और विशेष रूप से दिहाड़ीदार मजदूर पर होता है, उसके बच्चे भूखे मरने लगते हैं, हडताल, बंद और दंगे में सबसे आगे बंगाल है, करोना के विरुद्ध 25 मार्च, 2020 से आयोजित 21 दिवसीय बंद मे क्या चल रहा यह भारतवर्ष के लोग देख रहे हैं ।
सडक पर बिकने वाले मुर्गे और बकरों की तरह सोनागाछी में इंसानों का बाज़ार लगता है। पत्रकारों और फोटोग्राफरों को भी ये लोग भीतर नहीं आने देते ज्यादातर बच्चियां स्कूल छोड़कर आई हैं और इनके चंगुल में फस जा रही हैं। कुछ NGO का अध्ययन कहते हैं कि इन 35 सालों में सोनागाछी में देह-व्यापार में आने वाली लड़कियों की संख्या 10 गुणा हो गई है।
लाल आतंक या नक्सली जिसका बौद्धिक समर्थन सारे कम्युनिस्ट, अर्बन नक्सल बनकर करते हैं।
देश में सन् 2011- 2017 के समय में माओवादी लाल आतंक की कुल 5960 घटनाएं घटीं, इन घटनाओं में 1221 नागरिक मरे जिनमे अधिकतर आदिवासी रहे, 455 सुरक्षाकर्मियों की जान गई, 581 माओवादी आतंकवादी मारे गए।
गृहमंत्रालय से आरटीआई के तहत मिली सूचना के मुताबिक : वर्ष 2012 से अक्टूबर 2017 तक लाल आतंकी घटनाओं में देश में कुल 91 टेलीफोन एक्सचेंज और टावरों को निशाना बनाया गया, इसी अवधि में कुल 23 स्कूलों को ध्वस्त किया इन नक्सलियों ने, वर्ष 2012 में कुल 1415 लाल आतंक की घटनाएं हुईं, जिनमे 301 नागरिक, 114 सुरक्षाकर्मी शहीद और 74 माओवादी आतंकी मारे गए,
मानवता के दुश्मन हैं ये वामपंथ जनित लाल आतंकवादी, इनसे भी ज्यादा खतरनाक है, अकादमियों, यूनिवर्सिटियों, हॉस्टलों, सेमिनारों और मीडिया आदि में बैठे वे बुद्धिखोर हैं जो इन आतंकवादियों और इनके आतंक की पैरवी, समर्थन करते हैं, इनके लिए खाद-पानी की व्यवस्था करते हैं, जेनु एनु प्रोडक्ट ।
कम्युनिज्म पर डॉ. अंबेडकर के विचार है कि मेरे कम्युनिस्टों से मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता।
अपने स्वार्थों के लिए मजदूरों का शोषण करनेवाले कम्युनिस्टों का मैं जानी दुश्मन हूं।' मार्क्सवादी तथा कम्युनिस्टों ने सभी देशों की धार्मिक व्यवस्थाओं को झकझोर दिया है।
बौध्द धर्म को मानने वाले देश, जो कम्युनिज्म की बात कर रहे हैं, वे नहीं जानते कि कम्युनिज्म क्या है।
रूस के प्रकार का जो कम्युनिज्म है, वह रक्त-क्रांति के बाद ही आता है ।
कम्युनिस्टों ने अपने मकसद में डॉ. अंबेडकर को अवरोध मानते हुए समय-समय पर उनके व्यक्तित्व पर तीखे प्रहार किए। पूना पैक्ट के बाद कम्युनिस्टों ने डा. अंबेडकर पर 'देशद्रोही', 'ब्रिटीश एजेंट', 'दलित हितों के प्रति गद्दारी करनेवाला', 'साम्राज्यवाद से गठजोड़ करनेवाला' आदि तर्कहीन तथा बेबुनियाद आक्षेप लगाए। इतना ही नहीं, डा. अंबेडकर को 'अवसरवादी', 'अलगाववादी' तथा 'ब्रिटीश समर्थक' बताया।
(गैइल ओंबवेडन, 'दलित एंड द डेमोक्रेटिक रिवोल्यूशन:
डॉ. अंबेडकर एंड दी दलित मूवमेंट इन कॉलोनियल इंडिया') -
गुरु गोविन्द सिंह ने सन् 1699 में खालसा (पवित्र) पंथ का गठन किया था और कहा था कि मैं चारों वर्ण के लोगों को सिंह बना दूँगा ।" देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा प्राण देकर ही नही, प्राण लेकर भी की जाती है" -
वामपंथियों की बाइबिल है "रूल्स फाॅर रेडिकल्स" जिसे सन् 1971 में साॅल अलिन्स्की ने लिखा था।
वैसे ये व्यक्ति काल मार्क्स के जैसा सिद्धांत वादी तो नही था लेकिन अपने सारे अनुभवों का प्रायोगिक सत्यापन पूरे विश्व की राजनीति में किया और अपने समय में पूरे विश्व की तत्कालीन राजनीति को प्रभावित किया जिसके संकेत आज भी नजर आते हैं। अलिन्स्की के कुल तेरह रूल्स हैं जो महज एक सिद्धांत नहीं हैं वो प्रायोजित और प्रायोगिक रूप से हमारे चारों ओर आज भी कन्हैया, व इन्हीं जैसों के रूप में विद्यमान हैं ।
(रूल 1) = शक्ति सिर्फ वह नहीं है जो आपके पास है । शक्ति वह भी है जो आपका शत्रु समझता है कि आपके पास है। आप देखो ये 2% वामपंथी जो कहीं भी चुनाव नहीं जीतते उनका प्रचार रब्बीस कुमार जैसे बड़े प्रचारक और नामी गिरामी हस्तियों के द्वारा प्रायोजित रूप से करा कर जनता को ये विश्वास दिलाते है कि उनका अस्तित्व बहुत तगडा है। पूरे समाज में प्रायोजित रूप से भ्रम फैलाया जाता है कि जनता का अपार समर्थन उनके साथ है।
( रूल 2 ) = कभी भी अपने Expertise के बाहर जाकर कुछ मत करो। आप देखो कन्हैया, आइसी येचुरी ये सभी एक सीमित मुद्दे पर ही बार बार बकैती करते हैं, इनका बकलोली करने का दायरा सीमित होता हैं । जैसे आज कल आजादी टर्म को ज्यादा फोकस किया जा रहा है ।
( रूल 3 ) = जब भी संभव हो अपने शत्रु को उसके Expertise की सीमा से बाहर लाओ। हमेशा चिंता, अनिश्चितता और असुरक्षा बनाये रखने के प्रयास करो। आप देखना वामपंथी हमेशा आपको खींच कर अपने मुद्दे पर ले जाएंगे । अगर आप उनके मुद्दे पर आ गए तो वही उनकी प्राथमिक जीत हो गई। मैं तो वामपंथियो को कुत्ते के ठीक नीचे और सूवर के ठीक उपर रखता हूँ, इसलिए इनके किसी भी सवाल का जबाब नहीं देता और आपलोग भी मत दो वहीं बेहतर होगा।
( रूल 4) =उपहास सबसे बड़ा हथियार है इसका कोई जबाब नहीं है, यह आपके विपक्षी को निहत्था कर देता है। व्यक्ति आलोचना का जबाब दे सकता है परंतु उपहास का नहीं । आप देख रहे होंगे हाल के दिनों में मोदी, अमित शाह योगी और अन्य के उपर उपहास वाले खूब सारे पोस्ट हेयर किया जा रहा है, उन्हें पता है की इसका कोई जबाब नहीं दे सकता।
(रूल 5) =विपक्षी को उसके अपने नियमों से चलने के लिए बाध्य करो। अगर कोई हर पत्र का उत्तर देना नियम मानता है तो उसे रोज 3000 पत्र लिखो ताकी वो अपना नियम खुद ही तोडे तब वामपंथी चिल्लाने लगेंगे देखो इसने पत्र का जबाब नही दिया। आप पाएंगे की वामी हमेशा अच्छे को अच्छा, सहिष्णु को और सहिष्णु होने को वाध्य करते हैं । हिंदू सहनशील है तो वे आपकी सहनशीलता को उस सीमा तक टेस्ट करेंगे, जब आपकी सहनशीलता समाप्त हो जाए और वो कुत्ते की तरह चिल्लाने लगे की असहिष्णुता कितनी बढ गई है।
मजदूर और कम्युनिष्ट - कुछ दिन हुए, एक स्कूल का मित्र मिला, AITUC व डाक्टर भीमराव अम्बेडकर से बहुत प्रभावित था, कम्युनिष्ट लोबी से जुड़ा था, नाम राधे-श्याम पर सनातन धर्म, वेद और महर्षि मनु, राम, श्याम को गाली दे रहा था, बोला धर्म से किसी को रोटी नही मिलती, धर्म अफीम के समान हैं । भारत के बुरे हालात का कारण केवल धर्म है हालांकि मेरे कितने भी तर्क से वह संतुष्ट नहीं हुआ ।
यदि भारत के टुकड़े करने का समर्थन चाहिए तो कम्युनिस्ट उपलब्ध हैं । यदि सन् 1962 में चीन युद्ध के समय सेना का सामान ले जाने वाली मजदूर यूनियन की हडताल करवानी हो तो कम्युनिष्ट उपलब्ध हैं। ताज़ा उदाहरण आनन्द विहार दिल्ली में मजदूरो से मानवता के प्रतिकूल परिस्थितियों मे पलायन हेतु प्रायोजित व गुमराह करने की नियत से अनुचित दबाव डालने की कोशिश कर की घटना है।
60 साल का लगातार शासन कम नहीं होता, रात दिन मजदूरों के अधिकारों की बात करने वाले कम्युनिष्ट मजदूरों को किस तरह बर्बाद कर रहे हैं। कोई कम्युनिष्ट मजदूरों को तम्बाकू, शराब व नशा छोड़ने के नहीं बोलता, मैंने किसी कम्यूनिष्ट साहित्य में एक शब्द नहीं देखा इसके बारे में, टीवी के किसी भी कार्यक्रम में ये लोग मजदूरों को नशा छोड़ने को नहीं कहते, सभी जानते हैं तम्बाकू से दमा, टी बी, फेफड़े का कैंसर, मुंह का कैंसर और अल्सर की सम्भावना कई गुणा बढ़ जाती है, जो मजदूर रोटी के लिए संकट में है वह कैंसर का इलाज कहाँ से करवाएगा, नशे की सूईंयों लगाकर आज मजदूर रोगों का शिकार हो रहा है, मजदूरों के लिए फैक्ट्री मालिक को गाली देने वाले क्या इन नशे के चक्र को तोड़ेंगे, शराब का कभी विरोध नहीं करते देखा, हाँ दूध देने वाली गाय के क़त्ल की वकालत जरुर करेंगे।
भारतीय बंगाल (West Bengal} के मजदूरों को देने के लिए रोजगार नहीं परन्तु करोड़ों बंगलादेशी मुस्लिम बुला लिए, ये वही बंगलादेशी हैं जिन्होंने सन् 1947 और 1971 में हिन्दूओं का और बिहारी मुसलमानों का कत्लेआम किया था, त्रिपूरा और बंगाल का GDP Per Capita बेहद कम है, हरियाणा जैसे राज्यों से आधे से भी कम, सीधे शब्दों में -कम GDP Per Capita कम रोजगार, कम शिक्षा कम स्वास्थ्य सुविधाएं।
अर्थशास्त्र के नोबल विजेता अमर्त्य सेन ने सिद्ध किया है कि बन्द या हड़ताल का सबसे अधिक असर मजदूरों पर और विशेष रूप से दिहाड़ीदार मजदूर पर होता है, उसके बच्चे भूखे मरने लगते हैं, हडताल, बंद और दंगे में सबसे आगे बंगाल है, करोना के विरुद्ध 25 मार्च, 2020 से आयोजित 21 दिवसीय बंद मे क्या चल रहा यह भारतवर्ष के लोग देख रहे हैं ।
सडक पर बिकने वाले मुर्गे और बकरों की तरह सोनागाछी में इंसानों का बाज़ार लगता है। पत्रकारों और फोटोग्राफरों को भी ये लोग भीतर नहीं आने देते ज्यादातर बच्चियां स्कूल छोड़कर आई हैं और इनके चंगुल में फस जा रही हैं। कुछ NGO का अध्ययन कहते हैं कि इन 35 सालों में सोनागाछी में देह-व्यापार में आने वाली लड़कियों की संख्या 10 गुणा हो गई है।
लाल आतंक या नक्सली जिसका बौद्धिक समर्थन सारे कम्युनिस्ट, अर्बन नक्सल बनकर करते हैं।
देश में सन् 2011- 2017 के समय में माओवादी लाल आतंक की कुल 5960 घटनाएं घटीं, इन घटनाओं में 1221 नागरिक मरे जिनमे अधिकतर आदिवासी रहे, 455 सुरक्षाकर्मियों की जान गई, 581 माओवादी आतंकवादी मारे गए।
गृहमंत्रालय से आरटीआई के तहत मिली सूचना के मुताबिक : वर्ष 2012 से अक्टूबर 2017 तक लाल आतंकी घटनाओं में देश में कुल 91 टेलीफोन एक्सचेंज और टावरों को निशाना बनाया गया, इसी अवधि में कुल 23 स्कूलों को ध्वस्त किया इन नक्सलियों ने, वर्ष 2012 में कुल 1415 लाल आतंक की घटनाएं हुईं, जिनमे 301 नागरिक, 114 सुरक्षाकर्मी शहीद और 74 माओवादी आतंकी मारे गए,
मानवता के दुश्मन हैं ये वामपंथ जनित लाल आतंकवादी, इनसे भी ज्यादा खतरनाक है, अकादमियों, यूनिवर्सिटियों, हॉस्टलों, सेमिनारों और मीडिया आदि में बैठे वे बुद्धिखोर हैं जो इन आतंकवादियों और इनके आतंक की पैरवी, समर्थन करते हैं, इनके लिए खाद-पानी की व्यवस्था करते हैं, जेनु एनु प्रोडक्ट ।
कम्युनिज्म पर डॉ. अंबेडकर के विचार है कि मेरे कम्युनिस्टों से मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता।
अपने स्वार्थों के लिए मजदूरों का शोषण करनेवाले कम्युनिस्टों का मैं जानी दुश्मन हूं।' मार्क्सवादी तथा कम्युनिस्टों ने सभी देशों की धार्मिक व्यवस्थाओं को झकझोर दिया है।
बौध्द धर्म को मानने वाले देश, जो कम्युनिज्म की बात कर रहे हैं, वे नहीं जानते कि कम्युनिज्म क्या है।
रूस के प्रकार का जो कम्युनिज्म है, वह रक्त-क्रांति के बाद ही आता है ।
कम्युनिस्टों ने अपने मकसद में डॉ. अंबेडकर को अवरोध मानते हुए समय-समय पर उनके व्यक्तित्व पर तीखे प्रहार किए। पूना पैक्ट के बाद कम्युनिस्टों ने डा. अंबेडकर पर 'देशद्रोही', 'ब्रिटीश एजेंट', 'दलित हितों के प्रति गद्दारी करनेवाला', 'साम्राज्यवाद से गठजोड़ करनेवाला' आदि तर्कहीन तथा बेबुनियाद आक्षेप लगाए। इतना ही नहीं, डा. अंबेडकर को 'अवसरवादी', 'अलगाववादी' तथा 'ब्रिटीश समर्थक' बताया।
(गैइल ओंबवेडन, 'दलित एंड द डेमोक्रेटिक रिवोल्यूशन:
डॉ. अंबेडकर एंड दी दलित मूवमेंट इन कॉलोनियल इंडिया') -
कम्युनिस्ट क्या है, कौन है, थोड़ा समझिए..
यदि आपके घर में काम करने वाले नौकर से कोई आकर कहे, कि तुम्हारा मालिक तुमसे ज्यादा क्यों कमा रहा है? तुम उसके यहां काम मत करो, उसके खिलाफ आंदोलन करो, उसे मारो और अगर जरूरत पड़े तो हथियार उठाओ, हथियार मैं ला कर दूंगा। यह सलाह देने वाला व्यक्ति कम्युनिस्ट है..अगर कोई गरीब मजदूर, जो किसी ठेकेदार या किसी पुलिस वाले का सताया हो, उसको यह कहकर भड़काना, कि पूरी सरकार तुम्हारी दुश्मन है, इन्हें मारो और अपना खुद का राज्य बनाओ। तुम्हें हथियार में दूंगा। यह आदमी कम्युनिस्ट है..अगर कोई आपके पुरखों के वैभव और शानदार इतिहास को छुपाकर आपको यह बताए, समझाए और पढ़ाए कि दूसरे देश तुम से बेहतर हैं, तुम कुछ भी नहीं हो, यह हीन भावना जगाने वाला आदमी कम्युनिस्ट है..एक चलते हुए कारखाने को कैसे बंद करना है, एक सुरक्षित देश में कैसे सेंध लगानी है, अच्छे खासे युवा के दिमाग में कैसे देशद्रोही का बीज बोना है, किसी सिस्टम के सताए मजबूर इंसान को कैसे राष्ट्रविरोधी नक्सली बनाना है.. यह सब कम्युनिस्टों की विचारधारा है। पश्चिमी बंगाल और केरल में वामपंथी अनेक दशकों तक सत्ता में रहे लेकिन कोई आदर्श स्थापित नहीं कर पाए सिवाए आधे-अधूरे भूमिसुधार के जिसकी बदोलत वे इतने साल सत्ता में रह पाए |
इसके अतिरिक्त वे कोई छाप नहीं छोड़ पाए- न भ्रष्टाचार कम हुआ, न गरीवी का उन्मूलन हुआ न उद्योग धंधे न रोजगार में वृद्धि न स्वास्थ्य और शिक्षा का विकास हुआ और न ही जातिवाद का खात्मा हो पाया |+
यदि आपके घर में काम करने वाले नौकर से कोई आकर कहे, कि तुम्हारा मालिक तुमसे ज्यादा क्यों कमा रहा है? तुम उसके यहां काम मत करो, उसके खिलाफ आंदोलन करो, उसे मारो और अगर जरूरत पड़े तो हथियार उठाओ, हथियार मैं ला कर दूंगा। यह सलाह देने वाला व्यक्ति कम्युनिस्ट है..अगर कोई गरीब मजदूर, जो किसी ठेकेदार या किसी पुलिस वाले का सताया हो, उसको यह कहकर भड़काना, कि पूरी सरकार तुम्हारी दुश्मन है, इन्हें मारो और अपना खुद का राज्य बनाओ। तुम्हें हथियार में दूंगा। यह आदमी कम्युनिस्ट है..अगर कोई आपके पुरखों के वैभव और शानदार इतिहास को छुपाकर आपको यह बताए, समझाए और पढ़ाए कि दूसरे देश तुम से बेहतर हैं, तुम कुछ भी नहीं हो, यह हीन भावना जगाने वाला आदमी कम्युनिस्ट है..एक चलते हुए कारखाने को कैसे बंद करना है, एक सुरक्षित देश में कैसे सेंध लगानी है, अच्छे खासे युवा के दिमाग में कैसे देशद्रोही का बीज बोना है, किसी सिस्टम के सताए मजबूर इंसान को कैसे राष्ट्रविरोधी नक्सली बनाना है.. यह सब कम्युनिस्टों की विचारधारा है। पश्चिमी बंगाल और केरल में वामपंथी अनेक दशकों तक सत्ता में रहे लेकिन कोई आदर्श स्थापित नहीं कर पाए सिवाए आधे-अधूरे भूमिसुधार के जिसकी बदोलत वे इतने साल सत्ता में रह पाए |
इसके अतिरिक्त वे कोई छाप नहीं छोड़ पाए- न भ्रष्टाचार कम हुआ, न गरीवी का उन्मूलन हुआ न उद्योग धंधे न रोजगार में वृद्धि न स्वास्थ्य और शिक्षा का विकास हुआ और न ही जातिवाद का खात्मा हो पाया |+
इतिहास के 10 सबसे बड़े झूठ जो हमे बताया गया है ।
1. दो गोली लगने के बाद गांधी ने 'हे राम' कहा था ? सफेद झूठ गोली लगने के बाद गाँधी के मुँह से कुछ नहीं निकला था
2. नेहरू बच्चों से बहुत प्यार करते थे ? महाझूठ नेहरू बच्चों से नहीं बल्कि महिलाओं से बहुत प्यार करते थे, खासकर विदेशी महिलाओं से ।
3. दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल ? एकदम बकवास1857 में भारतीयों ने आज़ादी की लड़ाई की शुरुवात की थी, 1947 तक 7 लाख 32 हज़ार भारतीयों ने बलिदान दिया तब आज़ादी आयी ।
4. ए मेरे वतन के लोगो सुनकर नेहरू रो दिए थे? एकदम झूठ नेहरू ने भारत के हथियारों के कल कारखाने बंद करवाए, चीन को ताकतवर बनवाया, परमाणु शक्ति बनवाया, और संसद में भी 1962 के बाद नेहरू ने बयान दिया की, क्या हो गया मानसरोवर गया तो, वो तो बंजर भूमि थी, घांस का एक तिनका भी नहीं उगता था ।
5. अकबर महान था ? महाझूठ अकबर एक विदेशी आतंकवादी था, एक पूर्ण हवसी था, और महाराणा प्रताप से डरता था, इसलिए हल्दीघाटी के युद्ध में नहीं आया ।
6. मजहब नही सिखाता आपस मे बैर करना ? कोरा झूठ मजहब के नाम पर ही इस्लामिक चरमपंथियों ने कश्मीर से हिन्दुओ को भगाया, मजहब के नाम पर ही देश का बंटवारा करवाया, 30 लाख का कत्लेआम किया ।
7. हिन्दू मुस्लिम इसाई आपस मे है भाई भाई ? बिल्कुल झूठ भाई भाई है, तो एक भाई दूसरे की माता तुल्य गाय को काटकर खाने के पीछे क्यों पड़ा हुआ है, कश्मीर से हिन्दुओ को क्यों भगाया । बंगाल, असम मे क्या हो रहा है।
8. गंगा- जमना तहजीब ? मीठा झूठ गंगा की पवित्रता की बराबरी जम जम के पानी से कैसे किया जा सकता है ।
9. गांधी अहिंसा के पुजारी थे? महाझूठ गाँधी ने हिन्दू महिलाओं को बलात्कार को सहन करने के लिए कहा, हिन्दुओ को कहा मुस्लिम क़त्ल करते है तो क़त्ल हो जाओ पर कभी मुस्लिमो को नहीं कहा की हिन्दुओ को मत मारो ।
10. नेहरू पंडित था ? फर्जी झूठ नेहरू गयासुद्दीन ग़ाज़ी जो की अफगानिस्तान का था, उसका वंशज था, नेहरू का मुबारिक अली से भी सम्बन्ध है, "नेहरू" तो सरनेम भी फर्जी है नेहरू ब्रह्माण्ड में किसी भी ब्राह्मण का सरनेम नहीं है गूगल कर के देखें, पिछले भागो में ब्राह्मण के समस्त वर्गों के बारे मे विस्तार से चर्चा की गयी हैं ।
वामपंथियों, कांग्रेसीयों, सेकुलरों और जिहादियों ने ये झूठ आजतक हमे परोसा है, हम तो इस झूठ के शिकार हुए पर आने वाली पीढ़ी को इन तमाम झूठों से सावधान रहना है।
संभलने की जरूरत है !!
1. चोटियां छोड़ी...
2. टोपी, पगड़ी छोड़ी...
3. तिलक, चंदन छोड़ा...
4. कुर्ता छोड़ा ,धोती छोड़ी...
5. यज्ञोपवीत छोड़ा...
6. संध्या वंदन छोड़ा...
7. रामायण पाठ, गीता पाठ छोड़ा...
8. महिलाओं, लड़कियों ने साड़ी छोड़ी... बिछिया छोड़े...चूड़ी छोड़ी... दुपट्टा... चुनरी छोड़ी... मांग बिन्दी छोड़ी...
9. पैसे के लिये बच्चे छोड़े (आया पालती है)
10. संस्कृत छोड़ी...हिन्दी छोड़ी...
11. श्लोक छोड़े...लोरी छोड़ी...
12. बच्चों के सारे संस्कार (बचपन के) छोड़े...
13. सुबह शाम मिलने पर राम राम छोड़ी...
14. पांव लागूं, चरण स्पर्श, पैर छूना छोड़े...
15. घर परिवार छोड़े (अकेले सुख की चाह में संयुक्त परिवार)...
अब कोई रीति या परंपरा बची है?ऊपर से नीचे तक गौर करो, तुम कहां पर हिन्दू हो ?
भारतीय हो...सनातनी हो...ब्राह्मण हो...क्षत्रिय हो... वैश्य हो...या कुछ और हो कहीं पर भी उंगली रखकर बता दो कि हमारी परंपरा को मैंने ऐसे जीवित रखा है। जिस तरह से हम धीरे धीरे बदल रहे हैं- जल्द ही समाप्त भी हो जाएंगे।
बौद्धों ने कभी सर मुंड़ाना नहीं छोड़ा...सिक्खों ने भी सदैव पगड़ी का पालन किया...मुसलमानों ने न दाढ़ी छोड़ी और न ही 5 बार नमाज पढ़ना छोड़ा...ईसाई भी संडे को चर्च जरूर जाता है...फिर हिन्दू अपनी पहचान-संस्कारों से क्यों दूर हुआ ?कहाँ लुप्त हो गयी- गुरुकुल की शिखा, यज्ञ, शस्त्र-शास्त्र, नित्य मंदिर जाने का संस्कार ?
हम अपने संस्कारों से विमुख हुए, इसी कारण हम विलुप्त हो रहे हैं।
भारतीय हो...सनातनी हो...ब्राह्मण हो...क्षत्रिय हो... वैश्य हो...या कुछ और हो कहीं पर भी उंगली रखकर बता दो कि हमारी परंपरा को मैंने ऐसे जीवित रखा है। जिस तरह से हम धीरे धीरे बदल रहे हैं- जल्द ही समाप्त भी हो जाएंगे।
बौद्धों ने कभी सर मुंड़ाना नहीं छोड़ा...सिक्खों ने भी सदैव पगड़ी का पालन किया...मुसलमानों ने न दाढ़ी छोड़ी और न ही 5 बार नमाज पढ़ना छोड़ा...ईसाई भी संडे को चर्च जरूर जाता है...फिर हिन्दू अपनी पहचान-संस्कारों से क्यों दूर हुआ ?कहाँ लुप्त हो गयी- गुरुकुल की शिखा, यज्ञ, शस्त्र-शास्त्र, नित्य मंदिर जाने का संस्कार ?
हम अपने संस्कारों से विमुख हुए, इसी कारण हम विलुप्त हो रहे हैं।
अपनी पहचान बनाओ, अपने मूल-संस्कारों को अपनाओ !
कंद-मूल खाने वालों से, मांसाहारी डरते थे।।
पोरस जैसे शूर-वीर को, नमन 'सिकंदर' करते थे॥
चौदह वर्षों तक खूंखारी, वन में जिसका धाम हैं ।
मन-मन्दिर में बसने वाला, शाकाहारी राम हैं ।।
चाहते तो खा सकते थे वो, मांस पशु के ढेरों में।
लेकिन उनको प्यार मिला', शबरी' के जूठे बेरों में॥
चक्र सुदर्शन धारी थे, गोवर्धन पर भारी थे।
मुरली से वश करने वाले, गिरधर' शाकाहारी थे॥
कंद-मूल खाने वालों से, मांसाहारी डरते थे।।
पोरस जैसे शूर-वीर को, नमन 'सिकंदर' करते थे॥
चौदह वर्षों तक खूंखारी, वन में जिसका धाम हैं ।
मन-मन्दिर में बसने वाला, शाकाहारी राम हैं ।।
चाहते तो खा सकते थे वो, मांस पशु के ढेरों में।
लेकिन उनको प्यार मिला', शबरी' के जूठे बेरों में॥
चक्र सुदर्शन धारी थे, गोवर्धन पर भारी थे।
मुरली से वश करने वाले, गिरधर' शाकाहारी थे॥
पर-सेवा, पर-प्रेम का परचम, चोटी पर फहराया था।
निर्धन की कुटिया में जाकर, जिसने मान बढ़ाया था॥
सपने जिसने देखे थे, मानवता के विस्तार के।
नानक जैसे महा-संत थे, वाचक शाकाहार के॥
उठो जरा तुम पढ़ कर देखो, गौरवमय इतिहास को।
आदम से आदी तक फैले, इस नीले आकाश को॥
दया की आँखें खोल देख लो, पशु के करुण क्रंदन को।।
इंसानों का जिस्म बना है, शाकाहारी भोजन को॥
अंग लाश के खा जाएं, क्या फ़िर भी वो इंसान है?
निर्धन की कुटिया में जाकर, जिसने मान बढ़ाया था॥
सपने जिसने देखे थे, मानवता के विस्तार के।
नानक जैसे महा-संत थे, वाचक शाकाहार के॥
उठो जरा तुम पढ़ कर देखो, गौरवमय इतिहास को।
आदम से आदी तक फैले, इस नीले आकाश को॥
दया की आँखें खोल देख लो, पशु के करुण क्रंदन को।।
इंसानों का जिस्म बना है, शाकाहारी भोजन को॥
अंग लाश के खा जाएं, क्या फ़िर भी वो इंसान है?
पेट तुम्हारा मुर्दाघर है, या कोई कब्रिस्तान है?
आँखें कितना रोती हैं जब, उंगली अपनी जलती है।
सोचो उस तड़पन की हद, जब जिस्म पे आरी चलती है॥
बेबसता तुम पशु की देखो, बचने के आसार नहीं ।
जीते जी तन काटा जाए,,उस पीडा का पार नहीं ॥
खाने से पहले बिरयानी*,चीख जीव की सुन लेते।।
करुणा के वश होकर तुम भी*गिरी गिरनार को चुन लेते॥
शाकाहारी बनो*...!
***आँखें कितना रोती हैं जब, उंगली अपनी जलती है।
सोचो उस तड़पन की हद, जब जिस्म पे आरी चलती है॥
बेबसता तुम पशु की देखो, बचने के आसार नहीं ।
जीते जी तन काटा जाए,,उस पीडा का पार नहीं ॥
खाने से पहले बिरयानी*,चीख जीव की सुन लेते।।
करुणा के वश होकर तुम भी*गिरी गिरनार को चुन लेते॥
शाकाहारी बनो*...!
आत्मीय मित्रो,
हमारे स्वर्णिम इतिहास की अमूल्य धरोहर रामायण, जिसमें भोग नहीं, त्याग है ***
भरत जी नंदिग्राम में रहते हैं, शत्रुघ्न जी उनके आदेश से राज्य संचालन करते हैं। एक रात की बात हैं,
माता कौशिल्या जी को सोते में अपने महल की छत पर किसी के चलने की आहट सुनाई दी। नींद खुल गई । पूछा कौन हैं ?
मालूम पड़ा श्रुतकीर्ति जी हैं । नीचे बुलाया गया । श्रुतिकीर्ति जी, जो सबसे छोटी हैं, आईं, चरणों में प्रणाम कर खड़ी रह गईं ।
माता कौशिल्या जी ने पूछा, श्रुति ! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही हो बिटिया ? क्या नींद नहीं आ रही ?
शत्रुघ्न कहाँ है ?
श्रुतिकीर्ति की आँखें भर आईं, माँ की छाती से चिपटी, गोद में सिमट गईं, बोलीं, माँ उन्हें तो देखे हुए तेरह वर्ष हो गए ।
उफ ! कौशल्या जी का ह्रदय काँप गया ।
तुरंत आवाज लगी, सेवक दौड़े आए । आधी रात ही पालकी तैयार हुई, आज शत्रुघ्न जी की खोज होगी, माँ चली ।
आपको मालूम है शत्रुघ्न जी कहाँ मिले ? अयोध्या जी के जिस दरवाजे के बाहर भरत जी नंदिग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं, उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला हैं, उसी शिला पर, अपनी बाँह का तकिया बनाकर लेटे मिले ।
माँ सिराहने बैठ गईं, बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्न जी नेआँखें खोलीं,
माँ ! उठे, चरणों में गिरे, माँ ! आपने क्यों कष्ट किया ? मुझे बुलवा लिया होता ।
माँ ने कहा, शत्रुघ्न ! यहाँ क्यों ? शत्रुघ्न जी की रुलाई फूट पड़ी,
बोले- माँ ! भैया राम जी पिताजी की आज्ञा से वन चले गए, भैया लक्ष्मण जी उनके पीछे चले गए, भैया भरत जी भी
नंदिग्राम में हैं, क्या ये महल, ये रथ, ये राजसी वस्त्र, विधाता ने मेरे ही लिए बनाए हैं ?
माता कौशल्या जी निरुत्तर रह गईं । देखो यह रामकथा हैं.
यह भोग की नहीं त्याग की कथा हैं, यहाँ त्याग की प्रतियोगिता चल रही हैं और सभी प्रथम हैं, कोई पीछे नहीं रहा
चारो भाइयों का प्रेम और त्याग एक दूसरे के प्रति अद्भुत-अभिनव और अलौकिक हैं ।
भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ तो उनकी पत्नी माँ सीता ने भी सहर्ष वनवास स्वीकार कर लिया।
परन्तु बचपन से ही बड़े भाई की सेवा मे रहने वाले लक्ष्मण जी कैसे राम जी से दूर हो जाते! माता सुमित्रा से तो उन्होंने आज्ञा ले ली थी, वन जाने की.. परन्तु जब पत्नी उर्मिला के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो सोच रहे थे कि माँ ने तो आज्ञा दे दी,
परन्तु उर्मिला को कैसे समझाऊंगा!! क्या कहूंगा! यहीं सोच विचार करके लक्ष्मण जी जैसे ही अपने कक्ष में पहुंचे तो देखा कि उर्मिला जी आरती का थाल लेके खड़ी थीं और बोलीं- "आप मेरी चिंता छोड़ प्रभु की सेवा में वन को जाओ। मैं आपको नहीं रोकूँगीं। मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा न आये, इसलिये साथ जाने की जिद्द भी नहीं करूंगी।"
लक्ष्मण जी को कहने में संकोच हो रहा था। परन्तु उनके कुछ कहने से पहले ही उर्मिला जी ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया। वास्तव में यहीं पत्नी का धर्म है। पति संकोच में पड़े, उससे पहले ही पत्नी उसके मन की बात जानकर उसे संकोच से बाहर कर दे!
लक्ष्मण जी चले गये परन्तु 14 वर्ष तक उर्मिला ने एक तपस्विनी की भांति कठोर तप किया। वन में भैया-भाभी की सेवा में लक्ष्मण जी कभी सोये नहीं परन्तु उर्मिला ने भी अपने महलों के द्वार कभी बंद नहीं किये और सारी रात जाग जागकर उस दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया।
मेघनाद से युद्ध करते हुए जब लक्ष्मण को शक्ति लग जाती है और हनुमान जी उनके लिये संजीवनी का पहाड़ लेके लौट रहे होते हैं, तो बीच में अयोध्या में भरत जी उन्हें राक्षस समझकर बाण मारते हैं और हनुमान जी गिर जाते हैं। तब हनुमान जी सारा वृत्तांत सुनाते हैं कि सीता जी को रावण ले गया, लक्ष्मण जी मूर्छित हैं।
यह सुनते ही कौशल्या जी कहती हैं कि राम को कहना कि लक्ष्मण के बिना अयोध्या में पैर भी मत रखना। राम वन में ही रहे। माता सुमित्रा कहती हैं कि राम से कहना कि कोई बात नहीं। अभी शत्रुघ्न है। मैं उसे भेज दूंगी। मेरे दोनों पुत्र राम सेवा के लिये ही तो जन्मे हैं। माताओं का प्रेम देखकर हनुमान जी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। परन्तु जब उन्होंने उर्मिला जी को देखा तो सोचने लगे कि यह क्यों एकदम शांत और प्रसन्न खड़ी हैं? क्या इन्हें अपनी पति के प्राणों की कोई चिंता नहीं?
हनुमान जी पूछते हैं- देवी! आपकी प्रसन्नता का कारण क्या है? आपके पति के प्राण संकट में हैं। सूर्य उदित होते ही सूर्य कुल का दीपक बुझ जायेगा।
उर्मिला जी का उत्तर सुनकर तीनों लोकों का कोई भी प्राणी उनकी वंदना किये बिना नहीं रह पाएगा। वे बोलीं- "
मेरा दीपक संकट में नहीं है, वो बुझ ही नहीं सकता। रही सूर्योदय की बात तो आप चाहें तो कुछ दिन अयोध्या में विश्राम कर लीजिये, क्योंकि आपके वहां पहुंचे बिना सूर्य उदित हो ही नहीं सकता। आपने कहा कि प्रभु श्रीराम मेरे पति को अपनी गोद में लेकर बैठे हैं। जो योगेश्वर राम की गोदी में लेटा हो, काल उसे छू भी नहीं सकता। यह तो वो दोनों लीला कर रहे हैं। मेरे पति जब से वन गये हैं, तबसे सोये नहीं हैं। उन्होंने न सोने का प्रण लिया था।
इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं। और जब भगवान् की गोद मिल गयी तो थोड़ा विश्राम ज्यादा हो गया। वे उठ जायेंगे। और शक्ति मेरे पति को लगी ही नहीं शक्ति तो राम जी को लगी है। मेरे पति की हर श्वास में राम हैं, हर धड़कन में राम, उनके रोम रोम में राम हैं, उनके खून की बूंद बूंद में राम हैं, और जब उनके शरीर और आत्मा में हैं ही सिर्फ राम, तो शक्ति राम जी को ही लगी, दर्द राम जी को ही हो रहा। इसलिये हनुमान जी आप निश्चिन्त होके जाएँ। सूर्य उदित नहीं होगा।"
राम राज्य की नींव जनक की बेटियां ही थीं, कभी सीता तो कभी उर्मिला।
भगवान् राम ने तो केवल राम राज्य का कलश स्थापित किया परन्तु वास्तव में राम राज्य इन सबके प्रेम, त्याग, समर्पण , बलिदान से ही आया।
!! जय श्री राम !!
दीप जलाकर प्रेम का, राखो मन के बीच।
चित्र मित्र का तुम सखे, रखो नयन में मीच।।
आत्मीय मित्रो,
इतिहास जो हमे विभिन्न लेखो व अन्य अमूल्य धरोहरों द्वारा बताया गया है ।
सिंधु घाटी सभ्यता की समयरेखा को तीन प्रमुख कालों में विभाजित मानने पर व्यापक सहमति है ,
प्रत्येक प्रमुख काल के 2 - 3 चरण हैं ।
ये प्रमुख काल , अपने पूर्वकाल और उत्तरकाल सहित , अनेक वैदिक चक्रवर्ती राजाओं के काल इन विभिन्न चरणों के आरंभ और अंत के निकट पड़ते हैं । वैदिक राजाओं के ये काल
सूर्यवंशी राम ( पीढ़ी . 100-3 , 1302 ई . पू . ) के काल से वंशावली - विज्ञान गणना द्वारा स्वतंत्र रूप से परिकलित हैं , इसका स्पष्टीकरण आगामी अनुभागों में दिया है ।
स्वयंभुव मनु ( 28-1 , 3391 ई . पू . ) से शुरू हई वैदिक सभ्यता का आरंभिक केंद्र सुमेरु पर्वतक्षेत्र ( वर्तमान गुर्ला मान्धाता , तिब्बत ) था ,
हड़प्पा - सभ्यता इस क्षेत्र के निकट , इसके पश्चिम में , विकसित हुई । स्वयंभुव - मनु के अनेक वंशज बाहरी क्षेत्रों में जा बसे , सभी नाना प्रकार से ।
कुछ सिंधु नदी के मध्यवर्ती क्षेत्रों ( सप्त - सैन्धव ) के पहले निवासी बने और कुछ अन्य थोड़ा और आगे पड़ने वाले मध्य - एशियाई और मिस्री क्षेत्रों में जा बसे । स्वयंभुव - मनु की 21वीं पीढ़ी में जन्मे वैवस्वत - मनु ( 48 1/3 , 2811 ई . पू . ) की किशोरावस्था में एक महा - जलप्रलय ( 2820 ई . पू . ) हुई जिसके पश्चात आरंभिक वैदिक सभ्यता का मुख्य केंद्र सरयू नदी के दक्षिणी तट पर एक मनोरम स्थान अयोध्या में स्थानांतरित हो गया । वैवस्वत ' मनु ' के वंशज मानव , मनुष्य और आर्य कहलाने लगे ।
वैदिक देवताओं की सभ्यता अपने मूल हिमालय क्षेत्र में और इनके चचेरे भाई असुरों की सभ्यता सिंधु - घाटी क्षेत्र में विकसित होती रही । समय की प्रगति संग , आर्यों के वैदिक धर्म और आर्यावर्त से निष्कासित जनजातियाँ भारत के उत्तर - पश्चिमी क्षेत्रों में बसती रहीं , यही यवन , म्लेच्छ , शक , पारद , कम्बोज , पहलव इत्यादि कहलाई ।
उपर्युक्त तालिका से दृश्यमान है कि - मनु का काल , आरंभिक - हड़प्पा काल के चरण - 1 ( 3300 ई . पू . ) से लगभग 90 वर्ष ( 3 पीढ़ी ) पहले पड़ता है । यह वैदिक - ग्रंथों के इस कथन की पुष्टि करता है कि स्वयंभुव प्रथम - ज्ञात व्यक्ति थे , और मेरे इस कथन की भी कि सिंधु - घाटी , मिस्र , मेसोपोटामिया इत्यादि सभ्यताएँ आरंभिक वैदिक सभ्यता से ही अंकुरित हुईं थीं । पुराणों में यह उल्लेख है कि उत्तम , तामस और रैवत , जो प्रियव्रत के पुत्र और स्वयंभुव के पौत्र थे , अपने अपने क्षेत्रों / मन्वन्तरों के 3 मनु हुए । क्योंकि उत्तम , तामस और रैवत का काल ( पीढ़ी . 30 , 3333 ई . पू . )
आरंभिक - हड़प्पा काल के चरण - 1 के आरंभ में ही था और इनका मूल क्षेत्र भी निकट ही था , यह मानने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि आरंभिक - हड़प्पा काल के चरण - 1 की जनजातियाँ इन 3 मनुओं से ही विकसित हुईं ।
इनके बड़े भाई आग्नीध्र ने , पुत्र नाभि ( 31-1 , 3304 ई . पू . ) संग , अपना मूलवंश अपने मूल हिमालय क्षेत्र में स्थापित रखा ।
इसके पश्चात , आरंभिक - हड़प्पा काल के चरण - 1 ( 3300 - 2800 ई . पू . ) का अंत और
चरण - 2 का आरंभ वैवस्वत मनु ( 2811 ई . पू . ) के काल संग हुआ । चूंकि पुराणों से ज्ञात है कि वैवस्वत मनु की किशोरावस्था में एक महा - जलप्रलय ( 2820 ई . पू . ) हुई थी , यही संभावना प्रबल है कि चरण - 1 का अंत और चरण - 2 का आरंभ इस महा - जलप्रलय द्वारा ही हुआ । मेसोपोटामिया के उर क्षेत्र में लिओनार्ड वूली द्वारा की गई पुरातात्विक खुदाई ( 1922 ) में एक बाढ़ की मिट्टी का क्षेत्र ( 2800 ई . पू . ) मिला था जो इस ' वैश्विक ' महा - जलप्रलय के काल की पुष्टि करता है । बाढ़ की मिट्टी का यह क्षेत्र 8 फुट की परत के रूप में था , जिसमें मिली चिकनी और नदी की तलछट मिट्टी फ़रात ( Euphrates ) नदी की मिट्टी से मेल खाती थी ।
आरंभिक - हड़प्पा काल के चरण - 2 की समाप्ति और परिपक्व - हड़प्पा काल के चरण - 3क ( 2600 - 2450 ई . पू . ) का आरंभ चन्द्रवंशी राजा पुरु ( 54च , 2637 ई . पू . ) के निष्कासित भाईयों ( यदु , तुर्वसु , द्रुयु , अनु ) के काल में हुआ , जब उनका अपने मूलस्थान प्रतिष्ठान ( वर्तमान झूसी , इलाहाबाद ) से पश्चिमवर्ती स्थानांतरण हुआ ।
प्रतीत होता है कि जहाँ यदु मथुरा क्षेत्र में जा बसे , वहीं तुर्वसु , दुयु और अनु कुछ और आगे के पश्चिमी क्षेत्रों में जा बसे , संभवतः वहाँ पहले से बसे चरण - 2 के लोगों को विस्थापित करके । इनसे यवन , म्लेच्छ , शक इत्यादि कुछ जनजातियाँ उभरी और कुछ विकसित हुई ।
राजा पुरु के ये चार बड़े भाई अपने पिता ययाति द्वारा शापित होकर निष्कासित हए थे । ।
इसके बाद , परिपक्व - हड़प्पा काल के चरण - 3-2 ( 2450 - 2200 ई . पू . ) का अंत और चरण - 3-3 ( 2200 - 1900 ई . पू . ) का आरंभ अयोध्या के सूर्यवंशी चक्रवर्ती सम्राट अपनी पत्नी देवयानी के रुष्ट होने पर , राजा ययाति अपने ससुर शुक्र द्वारा अभिशप्त हो असमय ही वृद्ध हो गए । कुछ अनुनय - विनय करने पर शुक्र ने ययाति को कहा कि यदि कोई उनकी वृद्धावस्था को अपने यौवन से कुछ काल परिवर्तित करने को सहमत हो तो वह उतने समय के लिए पुनः युवा हो सकते हैं ।
राजा ययाति ने अपने पाँचों पुत्रों ( यदु , तुर्वसु , दुयु , अनु और पुरु ) को बुलाकर उनसे बारी - बारी पूछा कि क्या वे 10 वर्ष के लिए उनकी वृद्धावस्था ले अपना यौवन उसे देंगे ।
जब कनिष्ठ पुत्र पुरु के अलावा अन्य सभी पुत्रों ने असहमति जताई तो ययाति ने उनको नाना प्रकार के शाप दे डाले और 10 वर्ष समाप्त होने पर अपना चन्द्रवंश का राज्य पुरु को ही प्रदान किया ।
जहाँ पुरु से चन्द्रवंश की वृद्धि हुई , वहीं यदु से यादव , तुर्वसु से यवन , दुयुसे भोज और गांधार , अनु से म्लेच्छ हुए ।
मान्धाता ( 2260 ई . पू . ) और चन्द्रवंशी चक्रवर्ती समाट भरत - सर्वदमन ( 2202 ई . पू . ) के काल में हुआ ।
मान्धाता एक महान विजेता थे , उन्होंने आर्यावर्त और उसके सभी सीमावर्ती क्षेत्र जीत रखे थे । दुयु के वंशज और राजा गंधार के पिता , आरट्ट / गंधार ( वर्तमान पाकिस्तान / अफगानिस्तान ) के राजा अंगारसेतु ( पीढ़ी . 54 , 2637 ई . पू . ) , को इन्होंने युद्ध में बड़े पराक्रम से मारा था । ऐसे ही दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र सम्राट भरत थे , जो सभी शत्रुओं का दमन करने के कारण ' सर्वदमन ' नाम से भी प्रसिद्ध हुए थे ।
ऐसे ही , परिपक्व - हड़प्पा काल के चरण - 3 का अंत और परवर्ती - हड़प्पा काल के चरण - 4 ( 1900 - 1700 ई . पू . ) का आरंभ अयोध्या के सूर्यवंशी चक्रवर्ती समाट सगर ( पीढ़ी . 79 , 1912 ई . पू . ) के काल संग हुआ ।
राजा हरिश्चन्द्र के प्रपौत्र सगर चक्रवर्ती ( सर्वजित )थे,सूर्यवंश के महानतम विजेताओं में मान्धाता पश्चात इन्हीं का नाम आता है।
सगर ने आर्यावर्त के उत्तर - पश्चिमी क्षेत्रों और इनके निकटवर्ती सिंधु - घाटी क्षेत्र में बसने वाली शक , यवन , पारद , कम्बोज और पहलव जनजातियों को समूल नष्ट करने की भीषण प्रतिज्ञा करके इन्हें परास्त किया , फिर मारने के विचार से बंदी बना लिया । इन जनजातियों ने सगर के कुलगुरु वसिष्ठ की शरण लेकर अपने प्राणों की भिक्षा मांगी ।
जीवन - याचना करने पर वसिष्ठ ने इन्हें जीवनदान तो दे दिया , परन्तु कुछ ऐसी मृत्यु - समान - कष्टदायक शर्तों का पालन करने की शर्त पर जिससे उनके उन्मूलन की सगर की पूर्व - प्रतिज्ञा झूठी न हो ।
हैहयों ने इन जनजातियों संग एकजुट होकर इनके पिता बाहु को परास्त करके अयोध्या राज्य को जीत लिया ।
पराजित बाहु ने अपनी दोनों रानियों संग वन की शरण ली जहाँ कुछ काल पश्चात उनका निधन हो गया । इनकी कालिंदी नामक जो रानी उस समय गर्भवती थी , उसे दूसरी रानी ने द्वेषपूर्वक विष ( गर ) दे दिया और बाहु की चिता में सती होने के लिए प्रोत्साहित किया , जैसी उच्चकोटि आर्यों में सती की रीत थी ।
जब कालिंदी ने चिता - प्रवेश करना चाहा तो एक ऋषि और्व ने उसकी गर्भावस्था के लक्षण देख उसे रोक लिया , विष को चिकित्सा द्वारा बांध दिया और अपने आश्रम में उसे आश्रय प्रदान किया । समय आने पर सगर [ स + गर , " गर / विष के साथ उत्पन्न " ] का जन्म हुआ जिनकी शिक्षा - दीक्षा ऋषि और्व ने अपने संरक्षण में ही की , इनको सैन्य प्रशिक्षण देकर उन्नत अस्त्र - शस्त्र भी प्रदान किए । युवा योद्धा सगर ने लौटकर हैहयों का विनाश किया और अयोध्या को पुनः प्राप्त किया ।
इसके बाद इन्होंने हैहयों के सह - भागीदार शक , यवन , पारद , कम्बोज , पहलव इत्यादि जनजातियों को समूल नष्ट करने के लिए सिंधु - घाटी क्षेत्र गमन किया ।
यह इसलिए क्योंकि वैदिक समझ में मृत व्यक्ति और मृत्यु - समान - कष्टदायक और अपमानित जीवन जीने वाले व्यक्ति समान ही हैं ।
पहले वसिष्ठ ने उन सभी जनजातियों को वैदिक संस्कारों और अन्य वैदिक परंपराओं का पालन करने से प्रतिबंधित किया , फिर शकों को सदैव अर्ध - मुण्डित रहने की ( अर्ध - शिर ) , यवनों और कम्बोजों को सदैव पूर्ण - मुण्डित रहने की ( सर्व - शिर ) , पारदों को सदैव बिना केश रहने की ( मुक्त - केश ) , पलवों को सदैव पूर्ण - दाढ़ी - मूंछ संग ( समश्रु - धारिण , शायद सर्व - शिर भी ) रहने की शर्तों पर जीवनदान दिया ।
जिस आर्मेनिया देश के प्रवासी इंग्लैंड बसाकर ( 90 ई . पू . ) अंग्रेज़ कहलाए ,
उसका प्रथम राजा ओरोंतेस - 1 ( पीढ़ी . 123 , 636 ई . पू . ) बालीक / बल्ख / बक्ट्रिया का एक अर्धशिर ( आर्तशिरस ) था । फिर , परवर्ती - हड़प्पा काल के चरण - 4 ( 1900 - 1700 ई . पू . ) का अंत और इसके चरण - 5 ( 1700 - 1300 ई . पू . ) का आरंभ चन्द्रवंशी राजा हस्ती के काल संग हुआ जिन्होंने उत्तर - भारत में गंगातट पर हस्तिनापुर नगर की स्थापना की ।
चरण - 4 का अंत एकाएक हुए एक बृहद् निर्वासन द्वारा अभिज्ञानित है । मैक्समुलर की आर्य - आक्रमण - परिकल्पना का समय भी यही है ।
एक अनुमान यह है कि शायद इन बस्तियों में हस्ती के चन्द्रवंशी पूर्वज बसे होंगे जिनके हस्तिनापुर - गमन से ये एकाएक रिक्त हो गई होंगी । लेकिन इसकी पुष्टि इन स्थानों और हस्तिनापुर के बीच के कोई पुरातात्विक संबंध ही कर सकते हैं ।
ततः शकान्स यवनान्कांबोजान्पारदांस्तथा ।
पलवांश्चैव निःशेषान्कर्तुं व्यवसितो नृपः ॥
ब्रड . पु . 2 . 63 . 134
ते हन्यमाना बीरेण सगरेण महात्मना ।
वसिष्ठं शरणं सर्वे संप्राप्ताः शरणैषिणः ॥
ब्रड . पु . 2 . 63 . 135
वसिष्ठो वीक्ष्य तान्युक्तान्विनयोन महामुनिः ।
सगरं वारयामास तेषां दत्त्वाभयं तथा ॥
ब्रड पु . 2 . 63 . 136
सगरः स्वां प्रतिज्ञां च गुरोर्वाक्यं निशम्य च ।
जघान धर्मं वै तेषां वेषान्यत्वं चकार ह ॥
ब्रड . पु . 2 . 63 . 137
अर्द्ध शकानां शिरसो मुण्डयित्वा व्यसर्जयत् ।
यवनानां शिरः सर्वं कांबोजानां तथैव च ॥
ब्रड . पु . 2 . 63 . 138
पारदा मुक्तकेशाश्च पलवाः श्मश्रुधारिणः ।
निःस्वाध्यायवषट्काराः कृतास्तेन महात्मना ॥
ब्रड . पु . 2 . 63 . 139 86
आर्य - आक्रमण - परिकल्पना ( AIT ) इसलिए निराधार है क्योंकि इस परिकल्पना के काल ( 1700 ई . पू . ) तक , 3391 ई . पू . से लेकर , वैदिक सभ्यता 58 पीढ़ियाँ पहले ही देख चुकी थी ।
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्यों कोई चन्द्रवंशी राजा अपने मूलक्षेत्र प्रतिष्ठानपुर को छोड़ सिंधु - घाटी में आ बसेगा ?
पहला , जैसा आगे चन्द्रवंश की वंशावली से जानेंगे , प्रतिष्ठानपुर के सुहोत्र ( 2028 ई . पू . ) और हस्तिनापुर के हस्ती ( 1651 ई . पू . ) के बीच की 12 पीढियाँ अज्ञात हैं । दूसरे , सुहो ।
मूल - परशुराम के वरिष्ठ - समकालीन ( पिछली पीढ़ी ) थे । तीसरे , पुराणों में यह लिखा है कि मूल - परशुराम ने चन्द्रवंशी हैहय राजा कार्तवीर्यार्जुन संग अपनी शत्रुता पश्चात इस पृथ्वी ( आर्यावर्त ) को क्षत्रिय राजाओं से 10 बार ( वि - सप्त शायद 3 + 7 , 3x7 नहीं ) शून्य करने का व्रत लिया था ।
परशुराम के कार्तवीर्यार्जुन - वध पश्चात कई राजाओं ने इनके भय से अपने पुत्रों को वनों में छिपा दिया । प्रतीत होता है कि परशुराम की मृत्यु उपरान्त इनके वंशजों ( परशुरामों ) ने 10 पीढ़ियों तक मूल - परशराम के इस व्रत का अभिपालन किया , चन्द्रवंशी राजाओं का उनके मूलक्षेत्र प्रतिष्ठानपुर से निष्कासन बनाए रखकर , क्योंकि शत्रुता तो चन्द्रवंशियों से ही थी ।
निष्कासन इसलिए क्योंकि वैदिक समझ में किसी राजा का राज्य - निष्कासन उसकी मृत्यु - समान ही है ।
यह ज्ञात नहीं है कि सुहोत्र पश्चात ये 12 पीढ़ियाँ कहाँ रही क्योंकि भारतीय साहित्य में इन अज्ञात पीढ़ियों का कोई उल्लेख नहीं है । चन्द्रवंश - वंशावली में , महोत्र पश्चात सीधे इनकी 14वीं पीढ़ी में ही हस्तिनापुर के संस्थापक हस्ती का उल्लेख है ।
यह एक अनुमान ही है कि चन्द्रवंश की ये 12 लुप्त पीढ़ियाँ सिंधु - घाटी की इन बस्तियों में बसी हुई होंगी और हस्तिनापुर - गमन के समय से ये एकाएक रिक्त हो गई होंगी ।
अंत में , परवर्ती - हड़प्पा काल के चरण - 5 का अंत और उत्तर - हड़प्पा काल ( 1300 300 ई . पू . ) का आरंभ पंचाल के राजा दिवोदास ( 1332 ई . पू . ) और अयोध्या के सूर्यवंशी चक्रवर्ती सम्राट राम ( 1303 ई . पू . ) के काल संग हुआ ।
जहाँ दिवोदास ऋग्वेद में वर्णित हैं , वहीं रावण - वध ( 1299 ई . पू . ) पश्चात 31 वर्ष की आयु में राजा बने राम ने 10 अश्वमेध यज्ञ किए और चक्रवर्ती हुए । पंचाल के 5 भागों में से जिस एक भाग के राजा पौर ( 1303 ई . पू . ) का नीपों ने विनाश किया था , जैसा महाभारत में भी वर्णित है , वह राम की पीढ़ी में ही थे ।
इस चरण - 5 की समाप्ति का कारण ऐसे सैन्य अभियान प्रतीत होते हैं । इसके अलावा , दशराज्ञ युद्ध , दस राजाओं का युद्ध जिसका वर्णन ऋग्वेद में है , परुष्णी नदी ( वर्तमान रावी ) के तट पर लड़ा गया ।
इस युद्ध में दिवोदास के पौत्र के पौत्र चन्द्र / भरत / पुरु - वंशी राजा सुदास ( 1216 ई . पू . ) ने इस सिंधु - घाटी क्षेत्र के 10 राजाओं को एकसाथ पराजित किया था । ध्यान रहे कि यह सुदास अयोध्या के सूर्यवंशी सुदास / ऋतुपर्ण ( 1651 ई . पू . ) नहीं थे । इस क्षेत्र की लिपि सिंधु - लिपि अभी तक समझी नहीं जा सकी है लेकिन यह तर्कसंगत अनुमान अवश्य कर सकते हैं कि सिंधु - लिपि की भाषा प्राचीन वैदिक संस्कृत से मिलती - जुलती ही रही होगी ।
साभार : राजकुमार गोदारा विष्णोई
आत्मीय मित्रो,
इतिहास के महायोद्धा जो हमे कभी नही बताये गये।
इतिहास के महायोद्धा जो हमे कभी नही बताये गये।
***स्कंदगुप्त विक्रमादित्य का एतिहासिक महत्व **
सन 453 से 467 ईसवी के बीच में भारत को स्कन्दगुप्त जैसे सैनानी और नायक की आवश्यकता थी। उस विकट कालखंड में यदि वह न होता तो आज यह भारत ही कहां होता। रोम आदि साम्राज्यों की तरह भारत भी हूणों की बाढ़ में बह गया होता। हूणों को हम न पचा पाते, हूण ही हमें समाप्त कर जाते -
हूणों की भयानक दुर्भेद्य शक्ति से टक्कर लेने और भारत को बचाने के लिये उस महायोद्धा युवक स्कंदगुप्त विक्रमादित्य ने अपना जीवन ही दांव पर लगा दिया। महलों का सुख त्याग दिया, सैनिकों के साथ जमीन पर जीवन व्यतीत करने लगा।
आज से 1600 साल पहले औड़िहार (हौणिहार या हुणा-अरि) से गुजरात और कश्मीर तक उसने भारत भूमि को हूणों से मुक्त करा डाला।
रीवां का सुपिय अभिलेख प्रमाण है कि भारत ने स्कन्दगुप्त को इस कार्य के लिए इतना जनसमर्थन दिया कि उसे धर्मपालन में श्रीराम के तुल्य और सदाचार और सुनीति में सम्राट युधिष्ठिर के तुल्य बताया।
साभार: राकेश उपाध्याय
सन 453 से 467 ईसवी के बीच में भारत को स्कन्दगुप्त जैसे सैनानी और नायक की आवश्यकता थी। उस विकट कालखंड में यदि वह न होता तो आज यह भारत ही कहां होता। रोम आदि साम्राज्यों की तरह भारत भी हूणों की बाढ़ में बह गया होता। हूणों को हम न पचा पाते, हूण ही हमें समाप्त कर जाते -
हूणों की भयानक दुर्भेद्य शक्ति से टक्कर लेने और भारत को बचाने के लिये उस महायोद्धा युवक स्कंदगुप्त विक्रमादित्य ने अपना जीवन ही दांव पर लगा दिया। महलों का सुख त्याग दिया, सैनिकों के साथ जमीन पर जीवन व्यतीत करने लगा।
आज से 1600 साल पहले औड़िहार (हौणिहार या हुणा-अरि) से गुजरात और कश्मीर तक उसने भारत भूमि को हूणों से मुक्त करा डाला।
रीवां का सुपिय अभिलेख प्रमाण है कि भारत ने स्कन्दगुप्त को इस कार्य के लिए इतना जनसमर्थन दिया कि उसे धर्मपालन में श्रीराम के तुल्य और सदाचार और सुनीति में सम्राट युधिष्ठिर के तुल्य बताया।
साभार: राकेश उपाध्याय
***चन्द्रगुप्त मौर्य का एतिहासिक महत्व **
जिस समय देश के सीमांत प्रदेशों पर यूनानी आक्रमणकारी सिकन्दर अपना तूफानी आक्रमण कर रहा था उसी समय मगध में एक नवयुवक अपनी राजनैतिक शक्ति का संचय कर रहा था उसकी महत्त्वकांक्षाएँ केवल कल्पना मात्र नहीं थीं वरन् उसने नन्दों को समूल नष्ट करके सचमुच भारतीय इतिहास में एक नए युग का निर्माण किया।मौर्यकाल के साथ भारतीय इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात होता है। पहली बार इस युग में भारत को राजनैतिक दृष्टि से एकछत्र राज्य के अन्तर्गत अखण्ड एकता प्राप्त हुई।
चन्द्रगुप्त मौर्य प्रथम भारतीय सम्राट् था जिसने वृहत्तर भारत पर अपना शासन स्थापित किया। ब्रिटिशकालीन भारत से वह भारत बड़ा था। वृहत्तर भारत की सीमाएँ आधुनिक भारत की सीमाओं से बहुत आगे तक ईरान की सीमाओं से मिली हुई थीं।
इसके अतिरिक्त चन्द्रगुप्त भारत का प्रथम शासक था जिसने अपनी विजयों द्वारा सिन्धुघाटी तथा पांच नदियों के देश को, गंगा तथा यमुना की पूर्वी घाटियों के साथ मिलाकर एक ऐसे साम्राज्य की स्थापना की, जो एरिया (हेरात) से पाटलिपुत्र तक फैला हुआ था। वही पहला भारतीय राजा है जिसने उत्तरी भारत को राजनैतिक रूप से एकबद्ध करने के बाद, विंध्याचल की सीमा से आगे अपने राज्य का विस्तार किया, और इस प्रकार वह उत्तर तथा दक्षिण को एक ही सार्वभौम शासक की छत्रछाया में ले आया।
इससे पहले, वह पहला भारतीय शासक था जिसे अपने देश पर एक यूरोपीय तथा विदेशी-आक्रमण के निराशाजनक दुष्परिणामों का सामना करना पड़ा, उस समय देश राष्ट्रीय पराभव तथा असंगठन का शिकार था। उसे यूनानी शासन से अपने देश को पुन: स्वतंत्र कराने का अभूतपूर्व श्रेय प्राप्त हुआ।
इसके अतिरिक्त मौर्य साम्राज्य की अन्य विशेषता उसकी सुव्यवस्थित शासन-पद्धति थी जो अपनी व्यवहारिकता एवं सरलता के कारण आधुनिक विचारकों को आश्चर्यचकित कर देती है।
इस युग के प्रणेता और महान् विजेता सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य तथा प्रगाढ़ कूटनीतिज्ञ एवं विद्वान् मंत्री कौटिल्य (चाणक्य) थे जिन्होंने राष्ट्रीय एकता की नींव रखी।
भारतीय इतिहास में मौर्य साम्राज्य का विशिष्ट महत्त्व है क्योंकि इसकी स्थापना के साथ ही हम इतिहास के सुदृढ़ आधार पर खड़े होते हैं। इसके पूर्व का भारतीय इतिहास का ज्ञान किसी निश्चित तिथि के अभाव में अस्पष्ट रहा है।
मौर्य काल से प्राय: एक निश्चित तिथिक्रम का प्रारम्भ होता है। मौर्य सम्राटों ने अन्य विदेशी राष्ट्रों के साथ कुटनीतिक संबंध स्थापित किए और भारतीय इतिहास की घटनाओं का कालक्रम अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं के साथ जुड़ने लगा। मौर्य इतिहास के स्त्रोतों को मुख्यत: हम दो भागों में बाँट सकते हैं- पुरातात्त्विक एवं साहित्यिक।
पुरातात्विक_स्रोत
अशोक के अभिलेख मौर्य साम्राज्य के अध्ययन के प्रामाणिक स्रोत हैं। इनमें स्तभ अभिलख, वृहत शिलालेख, लघु शिलालेख और अन्य प्रकार के अभिलेख शामिल हैं। अशोक के अभिलेख राज्यादेश के रूप में जारी किए गए हैं।
वह पहला ऐसा शासक था जिसने अभिलेखों के द्वारा जनता को संबोधित किया। अशोक के अभिलेख 457 स्थानों पर पाए गए हैं और कुल अभिलेखों की संख्या 150 है। ये 182 पाठान्तर में मिलते हैं। लगभग सभी अभिलेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में मिलते हैं।
लेकिन उत्तर-पश्चिम के अभिलेख में खरोष्ठी एवं अरामाइक लिपि का प्रयोग किया गया है और अफगानिस्तान में इसकी भाषा अरामाइक और यूनानी दोनों हैं। ये अभिलेख सामान्यत: प्राचीन राजमार्गों के किनारे स्थापित हैं। इनसे अशोक के जीवन-वृत, आंतरिक एवं विदेश नीति और उसके राज्य के विस्तार के विवरण मिलते हैं। उसके शिलालेखों में उसके राज्याभिषेक के 8वें और 21वें वर्ष की घटना वर्णित है।
अभिलेखों के अनुक्रम में पहले चौदह दीर्घ शिलालेख, लघुशिला लेख तथा स्तम्भ अभिलेख। येर्रागुडी एकमात्र स्थल है जहाँ से वृहत् और लघु दोनों शिलालेख मिले हैं।
वृहत शिलालेख- ये संख्या में 14 हैं जो आठ अलग-अलग स्थानों में मिले हैं। इन्हें पढ़ने में सर्वप्रथम सफलता 1837 ई. में जेम्स प्रिंसेप को मिली।
अशोक के 14 वृहत शिलालेख कालसी, शहबाजगढ़ी, मनसेहरा, (मानसेरा) सोपारा, धौली, जौगढ़, गिरनार, येरागुड्डी आदि स्थानों पर पाए गए हैं।
लघु शिलालेख- ये रूपनाथ, बैराट (राजस्थान), सहसराम, मस्की, गुर्जरा, ब्रह्मगिरी, सिद्धपुर, जतिंग रामेश्वर, गवीमठ (आंध्र से कर्नाटक तक) एर्रागुड्डी, राजुलमण्डगिरी, अहरोरा और दिल्ली में स्थापित अभी हाल में अन्य कई स्थानों से लघु शिलालेख प्रकाश में आए हैं।
ये स्थान हैं- सारो मारो (मध्य प्रदेश), पनगुडरिया (मध्य प्रदेश), निट्टर और उडेगोलम (बेलारी, कर्नाटक), सन्नाती (गुलबर्गा, कर्नाटक)।
स्तंभ अभिलेख- लौरिया-अरेराज, लौरिया-नन्दनगढ़, टोपरा-दिल्ली, मेरठ-दिल्ली, इलाहाबाद, रामपुरवा, इलाहाबाद के अशोक स्तंभ अभिलेख पर समुद्रगुप्त और जहाँगीर के अभिलेख भी मिलते हैं।
अन्य अभिलेख- बाराबर की गुफा, अरेराज, इलाहाबाद, सासाराम, रूम्मिनदेई और निगालीसागर, सांची, वैराट आदि स्थानों पर भी अशोक के शिलालेख मिले हैं।
कर्नाटक के गुलबर्गा जिलों के सन्नाती गाँव से तीन शिलालेख मिले हैं। इसकी खोज 1989 में हुई है। इससे यह साबित होता है कि अशोक ने तीसरी सदी पूर्व उत्तरी कर्नाटक और आस-पास के आंध्र प्रदेश का क्षेत्र जीता था।
1750 ई. में टील पैन्थर नामक विद्वान् ने अशोक की लिपि का पता लगाया। 1837 ई. में जेम्स प्रिसेप ने ब्राह्मी लिपि को पढ़ा। उसने पियदस्सी की पहचान श्रीलंका के एक शासक के साथ की। 1915 ई. के मास्की अभिलेख से अशोक की पहचान पियदस्सी के साथ हो गई। इसी वर्ष महावंश (5वीं सदी) के अध्ययन से पता चला कि पियदस्सी से तात्पर्य सम्राट् अशोक से है।
कुछ अभिलेख अपने मूल स्थान से हटाकर अन्य स्थानों पर ले जाये गये हैं। उदाहरण के लिए फिरोजशाह के समय मेरठ और टोपरा के स्तंभ शिलालेख दिल्ली ले आये गए। उसी तरह इलाहाबाद के स्तंभ शिलालेख पहले कौशांबी में थे। उसी तरह वैराट अभिलेख को कनिंघम महोदय कलकत्ता (कोलकाता) ले आये। ह्वेनसांग राजगृह और श्रीवस्ती में अशोक के अभिलेखों की चर्चा करता है जो अभी तक प्राप्त नहीं हुए है।
उसी तरह फाहियान सकिसा नामक स्थान पर सिंह की आकृतियुक्त एक अभिलेख की चर्चा करता है, साथ ही वह पाटलिपुत्र में भी एक अभिलेख की चर्चा करता है जो अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है।
कुछ ऐसे भी अभिलेख हैं जो प्रत्यक्षत: अशोक से जुड़े हुए नहीं हैं परन्तु उनसे मौर्य प्रशासन पर प्रकाश पड़ता है, उदाहरण के लिए तक्षशिला का पियदस्सी अभिलेख। उसी तरह लमगान से प्राप्त एक अभिलेख, जो एक अधिकारी रोमेडेटी के सम्मान में अंकित है, अरामाइक लिपि में हैं। संभवत: वह चंद्रगुप्त मौर्य से संबंधित है।
सोहगौरा और महास्थान अभिलेख भी संभवत: चन्द्रगुप्त मौर्य से संबंधित है। सोहगोरा और महास्थान अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि मौर्य काल में अकाल पड़ते थे। दशरथ का नागार्जुनी गुफा अभिलेख और रुद्रदमन के जूनागढ़ अभिलेख से भी मौर्य साम्राज्य पर प्रकाश पड़ता है।
मौर्य साम्राज्य के बारे में अधिक जानकारी के लिए कई स्थानों पर खुदाई भी कराई गई है। प्रो. बी.बी. लाल ने हस्तिनापुर की खुदाई करवायी। जॉन मार्शल के निर्देशन में तक्षशिला में खुदाई हुई। इसके अतिरिक्त राजगृह और पाटलिपुत्र में भी खुदाई करायी गई। प्रो. जी.आर. शर्मा ने कौशांबी में स्थित घोषिताराम बौद्ध संघ का पता लगाया। ए.एस. अल्तंकर ने कुम्हरार की खुदाई करवायी।
वृहत शिलालेख की घोषणाएँ
प्रथम वृहत शिलालेख- इसमें पशु हत्या एवं समारोह पर प्रतिबंध लगाया गया हैं।
दूसरा शिलालेख- इसमें समाज कल्याण से संबंधित कार्य बताये गए हैं और इसे धर्म का अंत्र बनाया गया है। इसमें मनुष्यों एवं पशुओं के लिए चिकित्सा, मार्ग निर्माण, कुआ खोदना एवं वृक्षारोपण का उल्लेख मिलता है। इसमें लिखा गया है कि संपूर्ण साम्राज्य में देवानार्मपियदस्सी ने चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवायी।
इतना तक कि सीमावर्ती क्षेत्रो अर्थात् चोल, पाण्डय, सतियपुत्र और केरलपुत्र की भूमि श्रीलंका एवं यूनानी राजा ऐन्टियोकस और उसकी पड़ोसी भूमि पर भी चिकित्सा-सुविधा उपलब्ध करवाने की बात कही गई।
तीसरा अभिलेख- इसमें वर्णित है कि लोगों को धर्म की शिक्षा देने के लिए युक्त रज्जुक और प्रादेशिक जैसे अधिकारी पाँच वर्षों में दौरा करते थे। इसमें ब्राह्मणों तथा श्रमणों के प्रति उदारता को विशेष गुण बताया गया है। साथ ही माता-पिता का सम्मान करना, सोच समझकर धन खर्च करना और बचाना भी महत्त्वपूर्ण गुण है।
चौथा अभिलेख- इसमें धम्म नीति से संबंधित अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किए गए हैं। इसमें भी ब्राह्मणों एवं श्रमणों के प्रति आदर दिखाया गया है। पशु-हत्या को बहुत हद तक रोके जाने का दावा है।
पांचवां अभिलेख- इसके अनुसार अशोक के शासन के तेरहवें वर्ष धम्म महामात्र नामक अधिकारी की नियुक्ति की गई। वह अधिकारी लोगों को धम्म (धर्म) में प्रवृत्त करता था और जो धर्म के प्रति समर्पित हो जाते थे, उनके कल्याण के लिए कार्य करता था। वह यूनानियों, कंबोज वासियों, गांधार क्षेत्र के लोगों, रिष्टिका के लोगों, पितनिको के लोगों और पश्चिम के अन्य लोगों के कल्याण के लिए कार्य करता था।
छठा अभिलेख- इसमें धम्म महामात्र के लिए आदेश जारी किया गया है। वह राजा के पास किसी भी समय सूचना ला सकता था। इस शिलालेख के दूसरे भाग में सजग एवं सक्रिय प्रशासन तथा व्यवस्थित एवं सुचारू व्यापार का उल्लेख है।
सातवां अभिलेख- इसमें सभी संप्रदायों के लिए सहिष्णुता की बात की गई है।
आठवां अभिलेख- इसमें कहा गया है कि सम्राट् धर्मयात्राएँ आयोजित करता है और उसने अब आखेटन गतिविधियाँ त्याग दी हैं।
₹नवम अभिलेख- इस शिलालेख में अशोक जन्म, विवाह आदि के अवसर पर आयोजित समारोह की निंदा करता है। वह ऐसे समारोहों पर रोक लगाने की बात करता है। इनके स्थान पर अशोक धम्म पर बल देता है।
दशम शिलालेख- इसमें ख्याति एवं गौरव की निंदा की गयी है, तथा धम्म नीति की श्रेष्ठता पर बल दिया गया है।
ग्यारहवाँ शिलालेख- इसमें धम्म नीति की व्याख्या की गई है। इसमें बड़ों का आदर, पशु हत्या न करने तथा मित्रों की उदारता पर बल दिया गया है।
बारहवाँ शिलालेख- इस शिलालेख में पुनः संप्रदायों के बीच सहिष्णुता पर बल दिया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि राजा विभिन्न संप्रदायों के बीच टकराहट से चिन्तित था और सौहार्दता का निवेदन करता था।
तेरहवाँ शिलालेख- इसमें कलिंग विजय की चर्चा है। इसमें युद्ध विजय के बदले धम्म विजय पर बल दिया गया है। इसमें भी ब्राह्मण और श्रमण का नाम आता है। इसमें भी पडोसी राष्ट्रों की चर्चा है।
कहा गया है कि देवानामपिय्य ने अपने समस्त सीमावतीं राज्यों पर विजय पायी जो लगभग 600 योजन तक का क्षेत्र है।
यूनान का शासक एन्टियोकस और उसके चार पड़ोसी शासक टॉलेमी, ऐन्टिगोनस, मगस और एलेक्जेन्डर और दक्षिण में चोल, पाण्ड्य और श्रीलंका पितनिकों के साथ आध्र वासियों, परिण्डावासियों आदि की चर्चा है। इनके बारे में कहा गया है कि वे धम्म का पालन करते थे।
प्रथम कोटि के अन्तर्गत अशोक अपने 13वें शिलालेख में उन लोगों का उल्लेख करता है जो उसके विजित राज्य में रहते थे तथा जहाँ उसने धर्म-प्रचार किया- (1) यवन, (2) कबोज, (3) नाभाक नामपंक्ति, (4) भोज, (5) गांधार, (6) आटविक राज्य, (7) पितनीक, (8) आध्र, (9) परिन्द एवं (10) अपरांत।
चौदहवां शिलालेख- यह अपेक्षाकृत कम महत्त्वपूर्ण है। इसमें कहा गया है कि लेखक की गलतियों के कारण इनमें कुछ अशुद्धियाँ हो सकती हैं।
प्रथम अतिरिक्त शिलालेख (धौली)- इसमें तोशली/सम्पा क्षेत्र के अधिकारियों को संबोधित करते हुए अशोक के द्वारा यह घोषणा की गई है कि सारी प्रजा मेरी सन्तान है।
द्वितीय अतिरिक्त शिलालेख (जोगड़)- इसमें सीमान्तवासियों में धर्म-प्रचार की चिंता व्यक्त की गई है।
लघु शिलालेख
ये मुख्यत: अशोक के व्यक्तिगत जीवन (धर्म) से संबंधित हैं।
सुवर्णागिरि लघु शिलालेख- इसमें रज्जुक नामक अधिकारी की चर्चा है। यह चपड द्वारा लिखित है।
रानी लघु शिलालेख- इसमें स्त्री अध्यक्ष महामात्र की चर्चा की गई है। इसमें अशोक की पत्नी कारूवाकी की चर्चा है, जो उसके पुत्र तीबा की माता है। यह इलाहाबाद स्तंभ पर अंकित है।
बाराबर गुफा अभिलेख- इसमें सूचना मिलती है कि अशोक ने बाराबर की गुफा आजीवकों को दान में दी। अशोक ने अपने राज्यारोहण के बारहवें वर्ष में खलातिका पर्वत की गुफा आजीविकों को दे दी।
इससे यह भी ज्ञात होता है कि सम्राट् प्रियदर्शी के राज्यारोहण के उन्नीस वर्ष हो गए थे।
कंधार द्विभाषी शिलालेख- इसमें सूचना मिलती है कि मछुआरे और आखेटक शिकार खेलना छोड़ चुके थे।
भब्रु अभिलेख- इसमें अशोक ने बुद्ध, धम्म और संघ के प्रति आस्था व्यक्त की, यह अभिलेख सामान्य जन और कर्मचारियों के लिए न होकर पुरोहितों के लिए था। इस अभिलेख में अशोक ने अपने आप को मगधाधिराज कहा है।
यह अभिलेख संघ को संबोधित है तथा इसमें अशोक ने राहुलोवाद सुत्त के आधार पर भिक्षु, भिक्षुणिओं और उपासक उपासिकाओं को शिक्षा तथा उपदेश दिया है।
निगलीसागर स्तंभ अभिलेख- इसमें यह वर्णित है कि दवनामपिटय ने अपने शासन के 14वें वर्ष में इस क्षेत्र का दौरा किया और वहाँ उसने कनक मुनि के स्तूप को दुगना बड़ा किया।
रूम्मनदेई स्तंभ अभिलेख- यह अशोक के राज्यकाल के 20वें वर्ष का है। इससे यह ज्ञात होता है कि अशोक शाक्य मुनि की जन्म भूमि पर आया था और वहाँ उसने एक प्रस्तर अभिलेख स्थापित किया था। वहाँ उसने भाग की राशि, कुल उत्पादन का 1/8 भाग कर दी और बलि को समाप्त कर दिया।
विच्छेद अभिलेख- इस अभिलेख में देवनामपिय ने कौशांबी/पाटलिपुत्र के अधिकारियों को आदेश जारी किया है। इस आदेश के द्वारा बौद्ध संघ को कुतूशासित करने की कोशिश की गयी है। यह सारनाथ और साँची से प्राप्त हुआ है।
स्तंभ-अभिलेख
प्रथम स्तंभ- अभिलेख में अशोक ने यह घोषणा की है कि मेरा सिद्धांत है कि धम्म के द्वारा रक्षा, प्रशासन का संचालन, लोगों का संतोष और साम्राज्य की सुरक्षा है।
इसमें धम्म को ऐहलौकिक और पारलौकिक सुख का माध्यम बतलाया गया है अत: महामात्र का उल्लेख मिलता है।
दूसरा और तीसरा स्तंभ- दूसरे स्तंभ अभिलेख में धम्म की परिभाषा दी गई है तथा तीसरे स्तंभ अभिलख में आत्मनिरीक्षण पर जोर मिलता है! पाँचवें स्तंभ अभिलेख में जीवहत्या पर प्रतिबंध का उल्लेख मिलता है, जबकि छठे स्तंभ अभिलख में धम्म महामात्रों को ब्राह्मणों और आजीवकों के साथ लगे रहने का निर्देश दिया गया है।
सातवाँ स्तंभ अभिलेख केवल दिल्ली और टोपरा के स्तंभ पर पाया गया है। स्तंभ अभिलेख धम्म से संबंधित था।
चौथा स्तंभ अभिलेख- रज्जुक नामक अधिकारियों की शक्तियों का उल्लेख है। वे न्याय करने और दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं। साथ ही इस बात का भी उल्लेख है कि जिसको मृत्युदंड दिया जाता था उसे तीन दिन की मुहलत दी जाती थी। दण्ड समता और व्यवहार समता का उल्लेख मिलता है।
पंचम स्तम्भ लेख- उस स्तम्भ लेख में अशोक ने यह घोषणा की है कि पशु-पक्षी अबध्य हैं। इसमें कहा गया है कि शिकार के लिए जंगल न जलाए जायें। एक जानवर को दूसरे जानवर से न लड़ाया जाये।
षष्ट्म स्तम्भ लेख- यह अशोक के राज्यारोहण के बारहवें वर्ष में उत्कीर्ण कराया गया। इसमें लोक मंगल के धम्म के पालन का सन्देश है। इसमें कहा गया है कि जो कोई इसका पालन करता है, वह अनेक प्रकार से इसका विकास कर सकता है।
इसी में अशोक ने यह कहा है कि मैं सभी सम्प्रदायों का सम्मान करता हूँ।
सातवां स्तंभ अभिलेख- इसमें भी रज्जुक नामक अधिकारी की चर्चा और अशोक की यह घोषणा भी निहित है कि उसने धर्म प्रसार के लिए व्यापक कार्य किए, वृक्ष लगवाए और कुए खुदवाये आदि।
साहित्यिक स्रोत
बौद्ध साहित्य- इनसे समकालीन सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्था पर प्रकाश पड़ता है। दीर्घ निकाय से राजस्व के सिद्धांत पर प्रकाश पड़ता है तथा चक्रवर्ती शासक की संकल्पना यहीं से ली गई है।
दीपवश और महावश से श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रसार एवं अशोक की भूमिका पर प्रकाश पड़ता है। दशवीं सदी में महावंश पर एक वंशत्थपकासिनी नामक टीका लिखी गई, इससे भी मौर्य इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।
उसी तरह दिव्यावदान भी एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है, जो चीनी एवं तिब्बत के बौद्ध विद्वानों के द्वारा संकलित है। अशोकावदान, आर्यमजूश्री मूलकल्प, मिलिन्दपन्हो, लामा तारानाथ द्वारा लिखित तिब्बत का इतिहास सभी मौर्य साम्राज्य पर प्रकाश डालते हैं।
जैन साहित्य- जैन ग्रन्थों में भद्रबाहु के कल्पसूत्र एवं हेमचंद्र के परिशिष्टपवन् से भी मौर्य इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। इसमें चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन की घटनाएँ वर्णित हैं। परिशिपर्वन् में चंद्रगुप्त के जैन होने तथा मगध के बारह वर्षीय अकाल का उल्लेख मिलता है।
ब्राह्मण साहित्य- पुराणों से मौर्य वंशावलियाँ स्पष्ट होती हैं। विशाखदत्त के मुद्राराक्षस से चाणक्य के षडयंत्र पर प्रकाश पड़ता है। ढुंढीराज ने इस पर 9वीं शताब्दी में टीका लिखी है। सोमदेव का कथासरित्सागर और क्षेमेन्द्र की वृहत कथा मंजरी से भी मौर्य इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। पतञ्जलि के महाभास्य में चन्द्रगुप्त सभा का वर्णन है।
तमिल साहित्य- मामूलनार और परणार की रचनाओं से भी मौर्य इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। मामूलनार द्वारा मौर्यो के तमिल अभियान का उल्लेख किया गया ह।
धर्मनिरपेक्ष साहित्य- कौटिल्य का अर्थशास्त्र- इसकी प्रथम हस्तलिपि आर. शर्मा शास्त्री ने 1904 में खोज निकाली। यह 15 (अधिकरण) और 180 प्रकरणों में विभाजित है, इसमें लगभग 16000 श्लोक हैं। यह गद्य एवं पद्य दोनों शैली में लिखी हुई है।
इसकी भाषा संस्कृत है। इसमें पाटलिपुत्र, चंद्रगुप्त या किसी भी मौर्य शासक की चर्चा नहीं की गई है। इसमें स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि यह कृति उस लेखक के द्वारा लिखित है जो उस भू-क्षेत्र में निवास को धारण करता है, जिन पर नंद शासकों का आधिपत्य है। ऐसा माना जाता है कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र का संकलन अंतिम रूप में तीसरी सदी में हुआ है।
इसलिए संपूर्ण रूप में यह मौर्यकाल के इतिहास का अध्ययन स्रोत नहीं माना जा सकता। किंतु यह भी सत्य है कि इसके प्रारंभिक अंश चंद्रगुप्त मौर्य के समय लिखे गए। यद्यपि बाद में इसका दुबारा लेखन एवं संपादन हुआ, फिर भी अशोक के अभिलेखों एवं अर्थशास्त्र में प्रयुक्त शब्दावलियों में समानता है।
इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इसका एक बड़ा अंश मौर्यकाल में ही संकलित हुआ। इस पुस्तक का महत्त्व इस बात में है कि इसने तात्कालिक आर्थिक एवं राजनैतिक विचारधाराओं का बेहतर विश्लेषण प्रस्तुत किया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जिस राज्य का निरुपण है वह विशाल चक्रवर्ती राज्य न होकर एक छोटा-सा राज्य है।
वह एक ऐसे युग को सूचित करता है, जब भारत में छोटे-छोटे राज्य थे। अर्थशास्त्र, स्थानों के साथ वहाँ उत्पादित होने वाली मुख्य वस्तुओं की चर्चा करती है। उदाहरण कम्बोज के घोड़े, मगध के बाट बनाने वाले पत्थर प्रसिद्ध थे। यह पुस्तक राजनीतिशास्त्र पर है। प्रतिपदा पञ्चिका के रूप में भट्टस्वामी ने अर्थशास्त्र की टीका लिखी। अर्थशास्त्र राजव्यवस्था पर लिखी गई सर्वोत्कृष्ट रचना है।
यह रचना न केवल मौर्य शासन-व्यवस्था पर प्रकाश डालती है प्रत्युत शासन और राजनय के सम्बन्ध ऐसे व्यावहारिक नियमों और सिद्धान्तों का प्रतिपादन करती है जो सर्वयुगीन और सार्वभौमिक हैं।
#विदेशी साहित्य- कुछ यूनानी और रोमन विद्वानों की रचनाएँ स्रोत सामग्री के रूप में प्रयुक्त की जाती हैं।
#मेगस्थनीज की इंडिका- यह सेल्यूकस निकेटर के द्वारा चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा गया था और मौयों की राजधानी पाटलिपुत्र में 304-299 ई.पू. तक रहा। दुर्भाग्यवश आज उसकी रचना उपलब्ध नहीं है और हमें जो भी प्राप्त होता है वह विभिन्न व्यक्तियों द्वारा दिए वक्तव्यों से प्राप्त होता है।
स्ट्रेबो और डायोडोरस (प्रथम सदी ई.पू.) एरियन (दूसरी सदी) प्लिनी (प्रथम सदी) आदि इन सभी में मेगस्थनीज की इंडिका से वक्तव्य हैं।
एरियन के एनोबेसिस नामक ग्रन्थ से सिकन्दर के जीवन-वृत पर प्रकाश पड़ता है। एरियन ने भी इंडिका नामक ग्रन्थ लिखा है। वह अपनी इंडिका में मेगस्थनीज और येरासथिज्म के विवरण का भी उल्लेख करता है
डायोडोरस, जस्टिन और प्लुटार्क के विवरणों में न केवल सिकन्दर के भारतीय अभियानों पर प्रकाश पड़ता है वरन् चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन वृत पर भी प्रकाश पड़ता है। स्ट्रेबो ने भारत की भौगोलिक स्थिति पर अपना विवरण प्रस्तुत किया है। स्ट्रबो, एरियन और जस्टिन ने चन्द्रगुप्त को सेंड्राकोट्स कहा है और एपियॉनस और प्लुटार्क ने उसे एण्ड्रोकोट्स के नाम से पुकारा है।
सर्वप्रथम सर विलयम जोन्स ने 1793 ई. में इन नामों का समीकरण चंद्रगुप्त के साथ किया। प्लुटार्क के विवरण से पता चलता है कि नंदों के विरुद्ध सहायता के उद्देश्य से चंद्रगुप्त पंजाब में सिकन्दर से मिला था। फाहियान और ह्वेनसांग के विवरण से भी मौर्य इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।
****तक्षक खत्री का एतिहासिक महत्व ****
सन 711ई. की बात है। अरब के पहले मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद बिन कासिम के आतंकवादियों ने मुल्तान विजय के बाद एक विशेष सम्प्रदाय पंजाबी हिन्दू (खत्री) के ऊपर गांवो शहरों में भीषण रक्तपात मचाया था। हजारों स्त्रियों की छातियाँ नोच डाली गयीं, इस कारण अपनी लाज बचाने के लिए हजारों सनातनी किशोरियां अपनी शील की रक्षा के लिए कुंए तालाब में डूब मरीं। लगभग सभी युवाओं को या तो मार डाला गया या गुलाम बना लिया गया।
भारतीय सैनिकों ने ऎसी बर्बरता पहली बार देखी थी।
एक बालक तक्षक खत्री के पिता कासिम की सेना के साथ हुए युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। लुटेरी अरब सेना जब तक्षक के गांव में पहुची तो हाहाकार मच गया। स्त्रियों को घरों से खींच खींच कर उनकी देह लूटी जाने लगी।भय से आक्रांत तक्षक के घर में भी सब चिल्ला उठे। तक्षक और उसकी दो बहनें भय से कांप उठी थीं।
तक्षक खत्री की माँ पूरी परिस्थिति समझ चुकी थी, उसने कुछ देर तक अपने बच्चों को देखा और जैसे एक निर्णय पर पहुच गयी। माँ ने अपने तीनों बच्चों को खींच कर छाती में चिपका लिया और रो पड़ी। फिर देखते देखते उस क्षत्राणी ने म्यान से तलवार खीचा और अपनी दोनों बेटियों का सर काट डाला। उसके बाद अरबों द्वारा उनकी काटी जा रही गाय की तरफ और बेटे की ओर अंतिम दृष्टि डाली, और तलवार को अपनी छाती में उतार लिया।
आठ वर्ष का बालक तक्षक खत्री एकाएक समय को पढ़ना सीख गया था, उसने भूमि पर पड़ी मृत माँ के आँचल से अंतिम बार अपनी आँखे पोंछी, और घर के पिछले द्वार से निकल कर खेतों से होकर जंगल में भाग गया।
पच्चीस वर्ष बीत गए, अब वह बालक बत्तीस वर्ष का पुरुष हो कर कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार वंश के प्रतापी शासक नागभट्ट द्वितीय का मुख्य अंगरक्षक था। वर्षों से किसी ने उसके चेहरे पर भावना का कोई चिन्ह नही देखा था।
एक बालक तक्षक खत्री के पिता कासिम की सेना के साथ हुए युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। लुटेरी अरब सेना जब तक्षक के गांव में पहुची तो हाहाकार मच गया। स्त्रियों को घरों से खींच खींच कर उनकी देह लूटी जाने लगी।भय से आक्रांत तक्षक के घर में भी सब चिल्ला उठे। तक्षक और उसकी दो बहनें भय से कांप उठी थीं।
तक्षक खत्री की माँ पूरी परिस्थिति समझ चुकी थी, उसने कुछ देर तक अपने बच्चों को देखा और जैसे एक निर्णय पर पहुच गयी। माँ ने अपने तीनों बच्चों को खींच कर छाती में चिपका लिया और रो पड़ी। फिर देखते देखते उस क्षत्राणी ने म्यान से तलवार खीचा और अपनी दोनों बेटियों का सर काट डाला। उसके बाद अरबों द्वारा उनकी काटी जा रही गाय की तरफ और बेटे की ओर अंतिम दृष्टि डाली, और तलवार को अपनी छाती में उतार लिया।
आठ वर्ष का बालक तक्षक खत्री एकाएक समय को पढ़ना सीख गया था, उसने भूमि पर पड़ी मृत माँ के आँचल से अंतिम बार अपनी आँखे पोंछी, और घर के पिछले द्वार से निकल कर खेतों से होकर जंगल में भाग गया।
पच्चीस वर्ष बीत गए, अब वह बालक बत्तीस वर्ष का पुरुष हो कर कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार वंश के प्रतापी शासक नागभट्ट द्वितीय का मुख्य अंगरक्षक था। वर्षों से किसी ने उसके चेहरे पर भावना का कोई चिन्ह नही देखा था।
वह न कभी खुश होता था न कभी दुखी। उसकी आँखे सदैव प्रतिशोध की वजह से अंगारे की तरह लाल रहती थीं। उसके पराक्रम के किस्से पूरी सेना में सुने सुनाये जाते थे। अपनी तलवार के एक वार से हाथी को मार डालने वाला तक्षक खत्री सैनिकों के लिए आदर्श था। कन्नौज नरेश नागभट्ट अपने अतुल्य पराक्रम से अरबों के सफल प्रतिरोध के लिए ख्यात थे। युद्ध के सनातन नियमों का पालन करते नागभट्ट कभी उनका पीछा नहीं करते, जिसके कारण मुस्लिम शासक आदत से मजबूर बार बार मजबूत हो कर पुनः आक्रमण करते थे। ऐसा पंद्रह वर्षों से हो रहा था।
इस बार फिर से सभा बैठी थी, अरब के खलीफा से सहयोग ले कर सिंध की विशाल सेना कन्नौज पर आक्रमण के लिए प्रस्थान कर चुकी है और संभवत: दो से तीन दिन के अंदर यह सेना कन्नौज की सीमा पर होगी। इसी सम्बंध में रणनीति बनाने के लिए महाराज नागभट्ट ने यह सभा बैठाई थी। सारे सेनाध्यक्ष अपनी अपनी राय दे रहे थे, तभी अंगरक्षक तक्षक उठ खड़ा हुआ और बोला---
महाराज, हमे इस बार दुश्मन को उसी की शैली में उत्तर देना होगा।
महाराज ने ध्यान से देखा अपने इस अंगरक्षक की ओर, बोले- "अपनी बात खुल कर कहो तक्षक, हम कुछ समझ नही पा रहे।"
"महाराज, अरब सैनिक महाबर्बर हैं, उनके साथ सनातन नियमों के अनुरूप युद्ध कर के हम अपनी प्रजा के साथ घात ही करेंगे। उनको उन्ही की शैली में हराना होगा।"*
महाराज के माथे पर लकीरें उभर आयीं, बोले-
"किन्तु हम धर्म और मर्यादा नही छोड़ सकते सैनिक। "
तक्षक ने कहा-
"मर्यादा का निर्वाह उसके साथ किया जाता है जो मर्यादा का अर्थ समझते हों। ये बर्बर धर्मोन्मत्त राक्षस हैं महाराज। इनके लिए हत्या और बलात्कार ही धर्म है।"
"पर यह हमारा धर्म नही हैं बीर"
"राजा का केवल एक ही धर्म होता है महाराज, और वह है प्रजा की रक्षा। देवल और मुल्तान का युद्ध याद करें महाराज, जब कासिम की सेना ने दाहिर को पराजित करने के पश्चात प्रजा पर कितना अत्याचार किया था। ईश्वर न करे, यदि हम पराजित हुए तो बर्बर अत्याचारी अरब हमारी स्त्रियों, बच्चों और निरीह प्रजा के साथ कैसा व्यवहार करेंगे, यह आप भली भाँति जानते हैं।"
महाराज ने एक बार पूरी सभा की ओर निहारा, सबका मौन तक्षक के तर्कों से सहमत दिख रहा था। महाराज अपने मुख्य सेनापतियों मंत्रियों और तक्षक के साथ गुप्त सभाकक्ष की ओर बढ़ गए।
अगले दिवस की संध्या तक कन्नौज की पश्चिम सीमा पर दोनों सेनाओं का पड़ाव हो चूका था, और आशा थी कि अगला प्रभात एक भीषण युद्ध का साक्षी होगा।
आधी रात्रि बीत चुकी थी। अरब सेना अपने शिविर में निश्चिन्त सो रही थी। अचानक तक्षक के संचालन में कन्नौज की एक चौथाई सेना अरब शिविर पर टूट पड़ी। अरबों को किसी हिन्दू शासक से रात्रि युद्ध की आशा न थी। वे उठते,सावधान होते और हथियार सँभालते इसके पुर्व ही आधे अरब गाजर मूली की तरह काट डाले गए।
इस भयावह निशा में तक्षक खत्री का शौर्य अपनी पराकाष्ठा पर था। वह घोडा दौड़ाते जिधर निकल पड़ता उधर की भूमि शवों से पट जाती थी। आज माँ और बहनों की आत्मा को ठंडक देने का समय था।
उषा की प्रथम किरण से पुर्व अरबों की दो तिहाई सेना मारी जा चुकी थी। सुबह होते ही बची सेना पीछे भागी, किन्तु आश्चर्य! महाराज नागभट्ट अपनी शेष सेना के साथ उधर तैयार खड़े थे। दोपहर होते होते समूची अरब सेना काट डाली गयी।
इस बार फिर से सभा बैठी थी, अरब के खलीफा से सहयोग ले कर सिंध की विशाल सेना कन्नौज पर आक्रमण के लिए प्रस्थान कर चुकी है और संभवत: दो से तीन दिन के अंदर यह सेना कन्नौज की सीमा पर होगी। इसी सम्बंध में रणनीति बनाने के लिए महाराज नागभट्ट ने यह सभा बैठाई थी। सारे सेनाध्यक्ष अपनी अपनी राय दे रहे थे, तभी अंगरक्षक तक्षक उठ खड़ा हुआ और बोला---
महाराज, हमे इस बार दुश्मन को उसी की शैली में उत्तर देना होगा।
महाराज ने ध्यान से देखा अपने इस अंगरक्षक की ओर, बोले- "अपनी बात खुल कर कहो तक्षक, हम कुछ समझ नही पा रहे।"
"महाराज, अरब सैनिक महाबर्बर हैं, उनके साथ सनातन नियमों के अनुरूप युद्ध कर के हम अपनी प्रजा के साथ घात ही करेंगे। उनको उन्ही की शैली में हराना होगा।"*
महाराज के माथे पर लकीरें उभर आयीं, बोले-
"किन्तु हम धर्म और मर्यादा नही छोड़ सकते सैनिक। "
तक्षक ने कहा-
"मर्यादा का निर्वाह उसके साथ किया जाता है जो मर्यादा का अर्थ समझते हों। ये बर्बर धर्मोन्मत्त राक्षस हैं महाराज। इनके लिए हत्या और बलात्कार ही धर्म है।"
"पर यह हमारा धर्म नही हैं बीर"
"राजा का केवल एक ही धर्म होता है महाराज, और वह है प्रजा की रक्षा। देवल और मुल्तान का युद्ध याद करें महाराज, जब कासिम की सेना ने दाहिर को पराजित करने के पश्चात प्रजा पर कितना अत्याचार किया था। ईश्वर न करे, यदि हम पराजित हुए तो बर्बर अत्याचारी अरब हमारी स्त्रियों, बच्चों और निरीह प्रजा के साथ कैसा व्यवहार करेंगे, यह आप भली भाँति जानते हैं।"
महाराज ने एक बार पूरी सभा की ओर निहारा, सबका मौन तक्षक के तर्कों से सहमत दिख रहा था। महाराज अपने मुख्य सेनापतियों मंत्रियों और तक्षक के साथ गुप्त सभाकक्ष की ओर बढ़ गए।
अगले दिवस की संध्या तक कन्नौज की पश्चिम सीमा पर दोनों सेनाओं का पड़ाव हो चूका था, और आशा थी कि अगला प्रभात एक भीषण युद्ध का साक्षी होगा।
आधी रात्रि बीत चुकी थी। अरब सेना अपने शिविर में निश्चिन्त सो रही थी। अचानक तक्षक के संचालन में कन्नौज की एक चौथाई सेना अरब शिविर पर टूट पड़ी। अरबों को किसी हिन्दू शासक से रात्रि युद्ध की आशा न थी। वे उठते,सावधान होते और हथियार सँभालते इसके पुर्व ही आधे अरब गाजर मूली की तरह काट डाले गए।
इस भयावह निशा में तक्षक खत्री का शौर्य अपनी पराकाष्ठा पर था। वह घोडा दौड़ाते जिधर निकल पड़ता उधर की भूमि शवों से पट जाती थी। आज माँ और बहनों की आत्मा को ठंडक देने का समय था।
उषा की प्रथम किरण से पुर्व अरबों की दो तिहाई सेना मारी जा चुकी थी। सुबह होते ही बची सेना पीछे भागी, किन्तु आश्चर्य! महाराज नागभट्ट अपनी शेष सेना के साथ उधर तैयार खड़े थे। दोपहर होते होते समूची अरब सेना काट डाली गयी।
अपनी बर्बरता के बल पर विश्व विजय का स्वप्न देखने वाले आतंकियों को पहली बार किसी ने ऐसा उत्तर दिया था।
विजय के बाद महाराज ने अपने सभी सेनानायकों की ओर देखा, उनमे तक्षक का कहीं पता नही था। सैनिकों ने युद्धभूमि में तक्षक खत्री की खोज प्रारंभ की तो देखा-लगभग हजार अरब सैनिकों के शव के बीच तक्षक की मृत देह दमक रही थी। उसे शीघ्र उठा कर महाराज के पास लाया गया।
विजय के बाद महाराज ने अपने सभी सेनानायकों की ओर देखा, उनमे तक्षक का कहीं पता नही था। सैनिकों ने युद्धभूमि में तक्षक खत्री की खोज प्रारंभ की तो देखा-लगभग हजार अरब सैनिकों के शव के बीच तक्षक की मृत देह दमक रही थी। उसे शीघ्र उठा कर महाराज के पास लाया गया।
कुछ क्षण तक इस अद्भुत योद्धा की ओर चुपचाप देखने के पश्चात महाराज नागभट्ट आगे बढ़े और तक्षक के चरणों में अपनी तलवार रख कर उसकी मृत देह को प्रणाम किया। युद्ध के पश्चात युद्धभूमि में पसरी नीरवता में भारत का वह महान सम्राट गरज उठा-
"आप आर्यावर्त की वीरता के शिखर थे तक्षक.... भारत ने अबतक मातृभूमि की रक्षा में प्राण न्योछावर करना सीखा था, आप ने मातृभूमि के लिए प्राण लेना सिखा दिया। भारत युगों युगों तक आपका आभारी रहेगा।"
इतिहास साक्षी है, इस युद्ध के बाद अगले तीन शताब्दियों तक अरबों कीें भारत की तरफ आँख उठा कर देखने की हिम्मत नही हुई।
तक्षक ने सिखाया कि मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राण दिए ही नही, लिए भी जाते है, साथ ही ये भी सिखाया कि दुष्ट सिर्फ दुष्टता की ही भाषा जानता है, इसलिए उसके दुष्टतापूर्ण कुकृत्यों का प्रत्युत्तर उसे उसकी ही भाषा में देना चाहिए अन्यथा वो आपको कमजोर ही समझता रहेगा।
"आप आर्यावर्त की वीरता के शिखर थे तक्षक.... भारत ने अबतक मातृभूमि की रक्षा में प्राण न्योछावर करना सीखा था, आप ने मातृभूमि के लिए प्राण लेना सिखा दिया। भारत युगों युगों तक आपका आभारी रहेगा।"
इतिहास साक्षी है, इस युद्ध के बाद अगले तीन शताब्दियों तक अरबों कीें भारत की तरफ आँख उठा कर देखने की हिम्मत नही हुई।
तक्षक ने सिखाया कि मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राण दिए ही नही, लिए भी जाते है, साथ ही ये भी सिखाया कि दुष्ट सिर्फ दुष्टता की ही भाषा जानता है, इसलिए उसके दुष्टतापूर्ण कुकृत्यों का प्रत्युत्तर उसे उसकी ही भाषा में देना चाहिए अन्यथा वो आपको कमजोर ही समझता रहेगा।
आज का कड़वा सच शायद उस दिन...!
मेरे परदादा, संस्कृत और हिंदी जानते थे।
माथे पे तिलक, और सर पर पगड़ी बाँधते थे।।
फिर मेरे दादा जी का, दौर आया। उन्होंने पगड़ी उतारी, पर जनेऊ बचाया।।
मेरे दादा जी, अंग्रेजी बिलकुल नहीं जानते थे।जानना तो दूर, अंग्रेजी के नाम से कन्नी काटते थे।।
मेरे पिताजी को अंग्रेजी, थोड़ी थोड़ी समझ में आई। कुछ खुद समझे, कुछ अर्थ चक्र ने समझाई।।
पर वो अंग्रेजी का प्रयोग, मज़बूरी में करते थे।यानि सभी सरकारी फार्म,हिन्दी में ही भरते थे।।
जनेऊ उनका भी, अक्षुण्य था। पर संस्कृत का प्रयोग, नगण्य था।।
वही दौर था, जब संस्कृत के साथ,संस्कृति खो रही थी।
इसीलिए संस्कृत, मृत भाषा घोषित हो रही थी।।
धीरे धीरे समय बदला, और नया दौर आया।
मैंने अंग्रेजी को पढ़ा ही नहीं, अच्छे से चबाया।।
मैंने खुद को, हिन्दी से अंग्रेजी में लिफ्ट किया।
साथ ही जनेऊ को, पूजा घर में शिफ्ट किया।।
मै बेवजह ही दो चार वाक्य, अंग्रेजी में झाड जाता हूँ।
मै बेवजह ही दो चार वाक्य, अंग्रेजी में झाड जाता हूँ।
शायद इसीलिए समाज में, पढ़ा लिखा कहलाता हूँ।।
और तो और,मैंने बदल लिए कई रिश्ते नाते हैं।
और तो और,मैंने बदल लिए कई रिश्ते नाते हैं।
मामा, चाचा, फूफा, अब अंकल नाम से जाने जाते हैं।।
मै टोन बदल कर वेद को वेदा, और राम को रामा कहता हूँ।
मै टोन बदल कर वेद को वेदा, और राम को रामा कहता हूँ।
और अपनी इस तथा कथित, सफलता पर गर्वित रहता हूँ।।
मेरे बच्चे, और भी आगे जा रहे हैं।
मेरे बच्चे, और भी आगे जा रहे हैं।
मैंने संस्कार चबाया था, वो अंग्रेजी में पचा रहे हैं।।
यानि उन्हें दादी का मतलब, ग्रैनी बताया जाता है।
यानि उन्हें दादी का मतलब, ग्रैनी बताया जाता है।
रामा वाज ए हिन्दू गॉड,गर्व से सिखाया जाता है।।
जब श्रीमती जी उन्हें, पानी मतलब वाटर बताती हैं।
जब श्रीमती जी उन्हें, पानी मतलब वाटर बताती हैं।
और अपनी इस प्रगति पर, मंद मंद मुस्काती हैं।।
जाने क्यों मेरे पूजा घर की, जीर्ण जनेऊ चिल्लाती है।और मंद मंद, कुछ मन्त्र यूँ ही बुदबुदाती है।।
कहती है - ये विकास, भारत को कहाँ ले जा रहा है। संस्कार तो गल गए,अब भाषा को भी पचा रहा है।।
संस्कृत की तरह हिन्दी भी, एक दिन मृत घोषित हो जाएगी।
शायद उस दिन भारत भूमि, **पूर्ण विकसित हो जाएगी॥
जाने क्यों मेरे पूजा घर की, जीर्ण जनेऊ चिल्लाती है।और मंद मंद, कुछ मन्त्र यूँ ही बुदबुदाती है।।
कहती है - ये विकास, भारत को कहाँ ले जा रहा है। संस्कार तो गल गए,अब भाषा को भी पचा रहा है।।
संस्कृत की तरह हिन्दी भी, एक दिन मृत घोषित हो जाएगी।
शायद उस दिन भारत भूमि, **पूर्ण विकसित हो जाएगी॥
******* बुद्धत्व ******
जब कोई बुद्ध के पास आता था तो वे कहते, बुनियादी सत्य यह है कि तुम नहीं हो, और क्योंकि तुम नहीं हो, तुम न मर सकते हो और न जन्म ले सकते हो।
जब कोई बुद्ध के पास आता था तो वे कहते, बुनियादी सत्य यह है कि तुम नहीं हो, और क्योंकि तुम नहीं हो, तुम न मर सकते हो और न जन्म ले सकते हो।
क्योंकि तुम नहीं हो, तुम दुख में और बंधन में नहीं हो सकते। क्या तुम इसे स्वीकार करने को राजी हो?
बुद्ध पूछते, क्या तुम यह मानने को तैयार हो? अगर तुम यह मानने को राजी नहीं हो तो तुम अभी ध्यान का प्रयोग मत करो। पहले पता कर लो कि तुम सचमुच हो या नहीं हो। पहले इसी पर ध्यान करो। कोई आत्मा है? भीतर कोई तत्व है या तुम एक संयोग भर हो?
अगर तुम खोजो तो पता चलेगा कि तुम्हारा शरीर एक संयोग है, जोड़ है। कुछ चीज तुम्हारी मां से मिली है,
कुछ चीज पिता से मिली है और शेष भोजन से मिला है।
यही तुम्हारा शरीर है। इस शरीर में तुम नहीं हो, कोई आत्मा नहीं है।
अगर तुम खोजो तो पता चलेगा कि तुम्हारा शरीर एक संयोग है, जोड़ है। कुछ चीज तुम्हारी मां से मिली है,
कुछ चीज पिता से मिली है और शेष भोजन से मिला है।
यही तुम्हारा शरीर है। इस शरीर में तुम नहीं हो, कोई आत्मा नहीं है।
फिर मन पर ध्यान करो। कुछ यहां से आया है, कुछ वहां से आया है।
मन में कुछ भी ऐसा नहीं है जो मौलिक हो। वह भी एक संग्रह है।
खोजो कि मन में कोई आत्मा है।
अगर गहरे खोजते चले गए तो तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारा व्यक्तित्व एक प्याज जैसा है। एक पर्त को हटाओ कि दूसरी पर्त सामने आ जाती है। दूसरी को हटाओ, तीसरी आ जाती है। पर्त पर पर्त हटाते जाओ और अंत में तुम्हारे हाथ शून्य बचेगा। जब सारी पर्तें हट गईं तो भीतर कुछ भी नहीं है।
शरीर और मन प्याज जैसे हैं। अगर तुम शरीर और मन के छिलकों को हटा दो तो तुम्हें जिसका साक्षात्कार होगा, उसे बुद्ध ने शुन्य कहा है। इस शुन्य का साक्षात्कार डर पैदा करता है। वही डर है। यही कारण है कि हम कभी ध्यान नहीं करते हैं। हम उसके बारे में बातें करते हैं, लेकिन हम उसे करते नहीं। वही भय है, गहरे में तुम जानते हो कि शुन्य है। लेकिन तुम इस भय से बच नहीं सकते हो। जो भी करो, भय बना रहेगा। जब तक उसका साक्षात्कार न कर लो, वह बना रहेगा। साक्षात्कार मात्र उपाय है।
एक बार अपने शुन्य का साक्षात्कार कर लो, एक बार जान लो कि भीतर तुम आकाश की तरह हो, शून्य हो,
तो फिर भय नहीं रहेगा।
अगर गहरे खोजते चले गए तो तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारा व्यक्तित्व एक प्याज जैसा है। एक पर्त को हटाओ कि दूसरी पर्त सामने आ जाती है। दूसरी को हटाओ, तीसरी आ जाती है। पर्त पर पर्त हटाते जाओ और अंत में तुम्हारे हाथ शून्य बचेगा। जब सारी पर्तें हट गईं तो भीतर कुछ भी नहीं है।
शरीर और मन प्याज जैसे हैं। अगर तुम शरीर और मन के छिलकों को हटा दो तो तुम्हें जिसका साक्षात्कार होगा, उसे बुद्ध ने शुन्य कहा है। इस शुन्य का साक्षात्कार डर पैदा करता है। वही डर है। यही कारण है कि हम कभी ध्यान नहीं करते हैं। हम उसके बारे में बातें करते हैं, लेकिन हम उसे करते नहीं। वही भय है, गहरे में तुम जानते हो कि शुन्य है। लेकिन तुम इस भय से बच नहीं सकते हो। जो भी करो, भय बना रहेगा। जब तक उसका साक्षात्कार न कर लो, वह बना रहेगा। साक्षात्कार मात्र उपाय है।
एक बार अपने शुन्य का साक्षात्कार कर लो, एक बार जान लो कि भीतर तुम आकाश की तरह हो, शून्य हो,
तो फिर भय नहीं रहेगा।
तब कोई भय नहीं रह सकता, क्योंकि यह शून्य नष्ट नहीं किया जा सकता है। यह शून्य मरने वाला नहीं है। जो मर सकता था, वह नहीं रहा; वह तो प्याज के छिलके जैसा था। यही कारण है कि कई बार गहरे ध्यान में आदमी इस शुन्य के करीब पहुंचता है तो डर जाता है, घबराकर कांपने लगता है। उसे लगता है कि मैं तो मरा। और तब वह शून्य से भागकर संसार में लौट जाना चाहता है। और अनेक सचमुच लौट जाते हैं; वे फिर भीतर की तरफ झांकते का नाम नहीं लेते।
जैसा मैं देखता हूं, तुम लोगों में से प्रत्येक ने किसी न किसी जन्म में ध्यान का प्रयोग किया है, और उस शून्य के निकट पहुंचने पर भय ने तुम्हें पकड़ा और तुम भाग निकले।
जैसा मैं देखता हूं, तुम लोगों में से प्रत्येक ने किसी न किसी जन्म में ध्यान का प्रयोग किया है, और उस शून्य के निकट पहुंचने पर भय ने तुम्हें पकड़ा और तुम भाग निकले।
तुम्हारे गहरे अचेतन में उसकी स्मृति बसी है। और अब वही स्मृति बाधा बन जाती है। फिर जब तुम ध्यान का प्रयोग करने की सोचते हो तो तुम्हारे गहरे अचेतन में बसी यह स्मृति तुम्हें विचलित करती है और कहती है, सोचो मत, करो मत; एक बार करके तुम देख चुके हो।
ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है- मैंने अनेक लोगों में झांककर देखा है, जिसने किसी न किसी जीवन में ध्यान का प्रयोग न किया हो। वह याद कायम है, यद्यपि तुम्हें इसका बोध नहीं है कि वह याद कहां है। वह है। जब तुम कुछ करते हो, वह याद अवरोध बनकर खड़ी हो जाती है और किसी न किसी ढंग से तुम्हें रोक देती है।
इसलिए अगर तुम ध्यान में सचमुच उत्सुक हो तो उसके संबंध में अपने भय को खोज निकालो। इसके बाबत ईमानदार बनो कि तुम डरे हो कि नहीं। और अगर डरे हो तो सबसे पहले ध्यान के लिए नहीं, भय के लिए कुछ करना जरूरी होगा।
बुद्ध कई उपाय प्रयोग में लाते थे-
ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है- मैंने अनेक लोगों में झांककर देखा है, जिसने किसी न किसी जीवन में ध्यान का प्रयोग न किया हो। वह याद कायम है, यद्यपि तुम्हें इसका बोध नहीं है कि वह याद कहां है। वह है। जब तुम कुछ करते हो, वह याद अवरोध बनकर खड़ी हो जाती है और किसी न किसी ढंग से तुम्हें रोक देती है।
इसलिए अगर तुम ध्यान में सचमुच उत्सुक हो तो उसके संबंध में अपने भय को खोज निकालो। इसके बाबत ईमानदार बनो कि तुम डरे हो कि नहीं। और अगर डरे हो तो सबसे पहले ध्यान के लिए नहीं, भय के लिए कुछ करना जरूरी होगा।
बुद्ध कई उपाय प्रयोग में लाते थे-
कभी कोई उनसे कहता था कि मुझे ध्यान से डर लगता है। और यह जरूरी है; गुरु को अवश्य बताना चाहिए कि मैं डरता हूं। तुम गुरू को धोखा नहीं दे सकते, और उसकी जरूरत भी नहीं है। तो जब कोई उनसे कहता कि मैं ध्यान से डरता हूं, तो बुद्ध कहते, तुम पहली शर्त पूरी कर रहे हो। जब तुम स्वयं कहते हो कि मैं ध्यान से डरता हूं, तो संभावना खुलती है। तब कुछ किया जा सकता है। क्योंकि तुमने एक गहरे घाव को उघाड़ है।
वह भय क्या है? उसी पर ध्यान करो, जाओ और खोदकर देखो कि वह भय कहां से आता है, उसका स्त्रोत क्या है।
सब डर अंततः मृत्यु पर आधारित है। सब डर! उसका जो भी रूप-रंग हो, जो भी नाम हो, सब डर मृत्यु पर खड़ा है। यदि थोड़ा गहरे जाओ तो पाओगे कि तुम मृत्यु से डरे हो।
जब कोई व्यक्ति बुद्ध को आकर कहता कि मैं मृत्यु से भयभीत हूं, मुझे इसका पता चल गया है, तो बुद्ध उससे कहते कि मरघट जाओ और वहां बैठकर जलती चिता पर ध्यान करो। लोग रोज मर रहे हैं, वे वहां जलाए जाएंगे।
सब डर अंततः मृत्यु पर आधारित है। सब डर! उसका जो भी रूप-रंग हो, जो भी नाम हो, सब डर मृत्यु पर खड़ा है। यदि थोड़ा गहरे जाओ तो पाओगे कि तुम मृत्यु से डरे हो।
जब कोई व्यक्ति बुद्ध को आकर कहता कि मैं मृत्यु से भयभीत हूं, मुझे इसका पता चल गया है, तो बुद्ध उससे कहते कि मरघट जाओ और वहां बैठकर जलती चिता पर ध्यान करो। लोग रोज मर रहे हैं, वे वहां जलाए जाएंगे।
उस मरघट में रहो और चिता पर ध्यान करो। जब मरने वाले के परिवार के लोग भी वहां से विदा हो जाएं तब भी तुम वहां रूके रहो। बस आग को, उसमें जलती लाश को देखो। जब सब धुंआ ही धुंआ हो रहे तो उसको भी गहराई में देखते रहो। कुछ सोचो मत, तीन महीने, छह महीने या नौ महीने तक बस ध्यान करो। और जब तुम्हें निश्चित हो जाए कि मृत्यु से बचा नहीं जा सकता, जब परम निश्चित हो जाए कि मृत्यु जीवन का एक ढंग है, कि मृत्यु जीवन में ही निहित है, कि मृत्यु होने ही वाली है, कि उससे बचने का कोई उपाय नहीं है, कि तुम मृत्यु में ही हो, तब लौटकर मेरे पास आना।
मृत्यु पर महीनों ध्यान करने के बाद, दिन-रात लाशों को जलते और राख होते देखने के बाद, बचे हुए धुओं को भी अंततः विलीन होते देखने के बाद, एक निश्चय घनीभूत हो जाता है कि मृत्यु निश्चित है। असल में यही एक चीज निश्चित है; शेष सब चीजें अनिश्चित हैं। जीवन में जो एक चीज निश्चित है वह है मृत्यु। दूसरी किसी भी चीज के लिए तुम कह सकते हो कि वह हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है, लेकिन मृत्यु के लिए यह बात नहीं कह सकते। मृत्यु है; वह होने वाली है; वह हो चुकी है।
मृत्यु पर महीनों ध्यान करने के बाद, दिन-रात लाशों को जलते और राख होते देखने के बाद, बचे हुए धुओं को भी अंततः विलीन होते देखने के बाद, एक निश्चय घनीभूत हो जाता है कि मृत्यु निश्चित है। असल में यही एक चीज निश्चित है; शेष सब चीजें अनिश्चित हैं। जीवन में जो एक चीज निश्चित है वह है मृत्यु। दूसरी किसी भी चीज के लिए तुम कह सकते हो कि वह हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है, लेकिन मृत्यु के लिए यह बात नहीं कह सकते। मृत्यु है; वह होने वाली है; वह हो चुकी है।
जिस क्षण तुम जीवन में प्रविष्ट हुए, उसी क्षण मृत्यु में भी प्रविष्ट हो गए। अब उसके बाबत कुछ भी नहीं किया जा सकता।
और जब मृत्यु निश्चित ही है तो उसका डर भी नहीं रहता है। भय तो उन चीजों के साथ है जो बदली जा सकती हैं। जब मरना ही है तो भय क्या? यदि तुम मृत्यु के बाबत कुछ कर सको, उसे बदल सको, तो भय बना रहेगा। और अगर जान लिया कि कुछ नहीं किया जा सकता, कि तुम मृत्यु में ही हो, कि यह अटल है, तो भय भी विदा हो जाता है।
और जब मृत्यु का भय जाता रहता है तो बुद्ध तुम्हें ध्यान करने की इजाजत देंगे। वे कहेंगे, अब ध्यान कर सकते हो।
और जब मृत्यु निश्चित ही है तो उसका डर भी नहीं रहता है। भय तो उन चीजों के साथ है जो बदली जा सकती हैं। जब मरना ही है तो भय क्या? यदि तुम मृत्यु के बाबत कुछ कर सको, उसे बदल सको, तो भय बना रहेगा। और अगर जान लिया कि कुछ नहीं किया जा सकता, कि तुम मृत्यु में ही हो, कि यह अटल है, तो भय भी विदा हो जाता है।
और जब मृत्यु का भय जाता रहता है तो बुद्ध तुम्हें ध्यान करने की इजाजत देंगे। वे कहेंगे, अब ध्यान कर सकते हो।
**** शेष अगले भाग में जारी है ***
आगामी लेखो में हम संस्मरण, अर्वाचीन बोधकथाएँ, विज्ञान व प्रौद्योगिकी, आकाशगंगा, भौतिक आयामों व समय यात्रा पर चर्चा करेंगे।व ईश्वर से इसके सतत उत्तरोत्तर उन्नति की कामना करते है |ईश्वर सद्बुधि दे और सदा सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे|
"असतो मा सद्गमय""तमसो मा ज्योतिर्गमय,""मृर्त्यो मा अमृतंर्गमयं ।।"
अगर आप इसे अंत तक पढ़ते हैं, तो मैं चाहता हूँ कि आप मेरे बारे में "कुछ शब्द" के साथ टिप्पणी (कमेन्ट) करें।
आइए देखते हैं कि हमारे इस सन्देश को किसने पढ़ने और जवाब देने के लिए समय दिया !!आप में से बहुत से लोग मुझे व्यक्तिगत रूप से जानते हैं।आप मेरे साथ जुड़े हैं अतः मैं विश्वास कर सकता हूँ कि आप मेरी रचनाओं को पसंद करते हैं।
मुझे अच्छा लगेगा यदि हम कभी भी सिर्फ LIKE और COMMENTS से अधिक संवाद कर सके ।
हम प्रौद्योगिकी में इतने डूब गए हैं कि हमने सबसे महत्वपूर्ण बात भुला दी जो है "अच्छी दोस्ती"। यह एक छोटा सा सामाजिक प्रयोग होगा।
धन्यवाद...
लेखक: श्री शिवा कान्त वत्स
( अधिवक्ता व व्यापार परामर्शदाता )
लेखक: श्री शिवा कान्त वत्स
( अधिवक्ता व व्यापार परामर्शदाता )
ॐ नमः शिवाय/श्लोक/।।श्री।।/Reloaded Main(C:) Reports;
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